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प्राचीनतम एक दुर्लभ जैन पाण्डुलिपि : २५ मुनि जिनविजय जी बड़े मनीषी और जैन इतिहास तथा पुरातत्त्व के अन्वेषक थे। उन्होंने सैकड़ों नये ग्रंथ खोजे तथा उनका प्रकाशन और प्रसारण कराया।
मुनिश्री ने अपने ग्रंथ Acatalogue of Sanskrit and PrakritManuscripts in Rajsthan Oriental Research Institute, Part II C (Jaipur Branch) on भूमिका में कई महत्त्वपूर्ण प्राचीन पांडुलिपियों का उल्लेख किया है जिनमें से कातन्त्र स्कूल ऑफ संस्कृत व्याकरण के विशिष्ट ग्रंथ कर्कशाम्बन्धोद्योत व बालशिक्षा का भी उल्लेख किया है जो ठक्कुर संग्राम सिंह की कृति है। मुनिश्री ने अपनी भूमिका में और भी कई विशिष्ट पाण्डुलिपियों का उल्लेख किया है जिनमें से संभवत: कुछ प्रकाशित हो चुके हों :- जैसे
(१) मम्मट कृत काव्यप्रकाश पर भट्टसोमेश्वर कृत टीका यह ताड़पत्र पर लिखी गयी है तथा लिपिकाल है सन् ११५८ ई०, जो काव्यप्रकाश की रचना (१०५०-११०० ई० सन्) के ही समकालीन अथवा कुछ वर्ष बाद की महत्त्वपूर्ण कृति है।
(२) चक्रपाणिविजयमहाकाव्य - श्री लक्ष्मीधर (३ श्ब्दरत्नप्रदीप, कर्कशाम्बन्धोद्योत और बालशिक्षा-ठक्कुर संग्रामसिह
(४) वृत्तजातिसमुच्चय - विरहांक (प्राकृत संस्कृत मिश्रित) लगभग सातवीं ई० के लगभग।
(५) कविदर्पण में १४वीं सदी ईस्वी के मध्यकालीन इतिहास की परम्पराओं का विवेचन है।
(६) पदार्थरत्नमंजूषा में कृष्णभट्टकवि ने वैशेषिक न्याय परंपरा का महत्त्वपूर्ण वर्णन किया है।
(७) त्रिपुराभारतीलघुस्तव - लघुआचार्य द्वारा त्रिपुरा देवी की यह भक्ति पूर्ण रचना है।
(८) शब्दरत्नप्रदीपिका - (९) वासवदत्ता-इसमें सुबन्धु ने संस्कृत गद्य में प्रेम कथा का वर्णन किया है।
शास्त्रों में नव निधियों, ऋद्धियों और सिद्धियों का वर्णन मिलता है पर यहां हमारा उन निधियों, सिद्धियों से कोई तात्पर्य नहीं है अपितु मानवीय दैनिक जीवन से संबंधित निधियों से है जैसे सोना, चाँदी, हीरे, जवाहरात आदि जिनका हम शरीर शोभा के लिए उपभोग करते हैं और दूसरी निधियां वे हैं जो हमारे पूर्वज हमारे लिए
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