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१८ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००४
(ब) काल दृष्टि : जैनों ने काल को लक्षण परिणाम, क्रिया आदि के रूप में परिवर्तनशील माना है। उन्होंने काल की न केवल त्रितयी मानी है, अपितु उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के रूप में काल-आधारित भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति एवं अवनति मानी है। यही नहीं, किसी भी एक चक्र के एक ही काल में हासमान (या वर्धमान) परिवर्तन माने हैं। इस तरह कालिक परिवर्तन के आधार पर भी आचार-विचारों की परिवर्तनशीलता स्पष्ट है। उदाहरणार्थ, जैनों का प्रारंभ महावीर के एक-आचार्टी पथ से हुआ था, पर काल के प्रभाव से आचार्य यशोभद्र के समय दो आचार्यों (संभूतविजय, भद्रबाह) की परम्परा चल पड़ी और महावीर धर्म दो रूपों में हो गया। अब तो जितने ही आचार्य, उतने ही रूप की स्थिति आ गई है। उपरोक्त दोनों के आचार-विचार निरूपण में भी अंतर आ गया। कैलाश चन्द्र जी शास्त्री ने बताया है कि गुरु और शास्त्र भेद के साथ देवमूर्तियों के निर्ग्रथ रूप में भी कालांतर में परिवर्तन हुआ। इनके ही समय में, आगमों की मान्यता/अमान्यता का प्रश्न उठ पड़ा था। इस प्रकार, कालिक दृष्टि से भी आगमों में परिवर्तन होते रहे हैं और वे अविरल चलते रहेंगे। तथापि, बौद्धिक जगत् यह मानता है कि वर्तमान में उपलब्ध आगम रूप से मान्य आगम या आगमकल्प ग्रंथ काल की ऐतिहासिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण हैं, सार्वत्रिक एवं सार्वकालिक दृष्टि से नहीं।
(स) भाव दृष्टि : भाव दृष्टि से भी जिनोपदेशों में परिवर्तन हुआ है। उदाहरणार्थ महावीर ने निम्न परिवर्तन किये :
१. क. त्रियाम और चातुर्याम धर्म का पंचयाम धर्म में परिवर्तन, ख. दैनिक प्रतिक्रम की अनिवार्यता, ग. अष्ट प्रवचन माता (समिति, गुप्ति) की धारणा, घ. अचेलकत्व की प्रतिष्ठा व मोक्ष मार्ग में अनिवार्यता, ङ. रात्रिभोजन विरमण व्रत का सुझाव, च. छेदोपस्थापना चारित्र की धारणा सैद्धांतिक मान्यताओं में परिवर्तन :
२. आगमों में छह अणुव्रतों की धारणा है, जो पांच अणुव्रतों में परिवर्तित हुई। ____३. पुष्पदंत-भूतबलि के षट्खंडागम में सिद्धों के लिये पृथक से आयाम दिये हैं, जैसे पांच गति, छह इंद्रिय आदि। इसे उत्तरवर्ती आचार्यों ने नहीं माना।
४. अकलंक ने प्रत्यक्ष के विरोधी परिभाषा के पारमार्थिक एवं सांव्यवहारिक२ भेद किये।
५. अनुयोगद्वार ने परमाणु के निश्चय और व्यवहार-दो भेद किये जो जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में भी आये।
६. प्रमाण की परिभाषा तो अनेक आचार्यों ने 'ज्ञान प्रमाण' से लेकर स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं' तक परिवर्धित की।
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