________________
आगमिक मान्यताओं में युगानुकूलन : १९ ७. कुंदकुद के युग में जहां आचार-पंचक था, उसे परिवर्तित कर उमास्वाति ने आचार-त्रिक किया।
८. लौकिक या पापश्रुत की संख्या सदैव बदलती रही है।
८ए. हमने श्रावक के सात व्यसन एवं आठ मूलगुण की उत्तरवर्ती धारणा भी स्वीकृत की।
९. कुंदकुंद के युग के सल्लेखना-गर्भी बारह व्रत उमास्वामि के युग में सल्लेखना बाह्य हो गये। समंतभद्र और उमास्वाति ने श्रमणधर्म को श्रावकीकृत भी किया।
१०. उमास्वाति ने आध्यात्मिक तत्त्वों की ९ व ११ की परंपरा को सप्त तत्त्वी बनाया एवं बंध-मोक्ष तत्त्वों का क्रम अधिक संगत बनाया।
११. उमास्वाति ने कुंदकुंद के निश्चय-व्यवहार एवं ग्यारह प्रतिमाओं पर मौन रखा। ये उत्तरवर्ती विकास प्रतीत होते हैं।
१२. अकलंक ने उपयोग की परिभाषा में, ज्ञान दर्शन के अतिरिक्त सुख और वीर्य को भी समाहित किया।
१३. कल्पसूत्र और अन्य ग्रंथों में एकेंद्रिय से चार इंद्रिय तक के जीवों में संमूर्छन जन्म के साथ गर्भ जन्म को भी मान्यता दी है।
१४. हिंसा के द्रव्य-भाव रूप के अतिरिक्त अनेक प्रकार के भेदों का विस्तार उत्तरवर्ती आचार्यों ने किया और उसे चतुर्विध बनाया।
१५. जैनों ने "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" का खण्डन करने के बावजूद भी 'पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य, सावद्यालेशो बहपुण्यराशी' के आधार पर जैन धार्मिक कार्यों-पूजा, अभिषेक, आरती, प्रतिष्ठा, विधान, गजरथ आदि में होने वाली हिंसा को लंशमात्र सावद्य का नाम देकर अनुमोदित किया है। यही नहीं, पुरुषार्थ-सिद्धिउपाय गाथा ७९ के टिप्पण में तो यह भी कहा गया है कि सावद्यलेशी धार्मिक कार्यों में धर्मानुराग तथा लोभकषाय का अल्पीकरण होता है। भौतिक या आध्यात्मिक उद्देश्य के लिये किये जाने वाले वैदिक या जैन-धार्मिक कार्य बिना संकल्प और आशीर्वाद के हों, यह विमर्शनीय विषय बन गया है। संकल्प और सावद्यलेश किंचत् विरोधी से प्रतीत होते हैं। यह एक विचारणीय विषय है।
१६. जैनों ने प्रवाह्यमान (नागहस्ती) एवं अप्रवाह्यमान (आर्य मंक्षु) आदेशों को भी मान्यता दी है।
१७. हमने पंचास्तिकाय की गाथा १११ (अमृतचंद्र) को भी स्वीकार किया जिसमें एकेंद्रिय के तीन प्रकारों को स्थावर (पृथ्वी, वनस्पति व जल) व अग्नि एवं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
For
www.jainelibrary.org