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श्रावक के चार शिक्षा व्रत दिक्-परिमाणादि व्रतों द्वारा मुझ में सांसारिक पदार्थों के प्रति कितनी विरक्ति आई है तथा मैं आत्मा को समाधि भाव में किस अंश तक स्थिर कर सका हूँ। सामायिक व्रत मूल व्रत और गुण व्रत की परीक्षा स्वरूप है। देशावकासिक व्रत द्वारा कुछ समय के लिए विशेष आत्म संयम किया जाता है एवं न्यूनतम सामग्री से अपनी आवश्यकताएं पूरी करके सन्तोष-वृत्ति की ओर बढ़ा जाता है। संसार में जिन भोग्योपभोग पदार्थ के लिए हाय-हाय मची रहती है, क्लेष कंकास और विग्रह होता रहता है, जिनके न मिलने से लोग दुःखी रहते हैं, श्रावक इस देशावकासिक व्रत को स्वीकार करके उन पदार्थों का अधिक से अधिक त्याग करता है और इस प्रकार संसार का दुःख कैसे मिट सकता है इस बात का आदर्श रखता है।
श्रावक जिस उच्च स्थिति पर पहुँचना चाहता है, और जिस पूर्ण विरक्ति का इच्छुक है, पौषधोपवास द्वारा उस स्थिति पर पहुँचने तथा विरक्त दशा प्राप्त करने का अभ्यास करता है और अपने जीवन को उच्चता की ओर ले जाता है। अर्थात् आत्मज्योति जगाता है।
ऊपर कहे गये तीनों व्रत अपने आत्मा को उन्नत बनाने के लिए अभ्यास रूप हैं, लेकिन चौथा अतिथि संविभाग व्रत जैन धर्म की विशालता और विश्व-बन्धुत्व की भावना का परिचय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com