Book Title: Shravak Ke Char Shiksha Vrat
Author(s): Balchand Shreeshrimal
Publisher: Sadhumargi Jain

View full book text
Previous | Next

Page 130
________________ श्रावक के चार शिक्षा व्रत १२० अप्सराएँ हार मान कर अपनी लीला समेट महाराजा मेघरथ को नमन करके तथा अपने अपराध के लिए क्षमा माँग कर अपने स्थान को गई । मतलब यह है कि पौषध व्रतधारी श्रावक को अनुकूल परिषह होने पर भी दृढ़ रहना चाहिए, विचलित न होना चाहिए। चाहे अनुकूल परिषद हों या प्रतिकूल परिषद हों, धैर्य पूर्वक उन्हें सह कर अविचल रहने और उनके प्रतिकार की भावना न करने पर ही पौषध व्रत अभंग रहता है । यदि परिषद के कारण विचलित हो उठा, परिषह के प्रतिकार अथवा परिषद देने वाले को दण्ड देने का प्रयत्न किया या ऐसी भावना की, तो उस दशा में पौषध व्रत भङ्ग हो जावेगा। परिषह देने वाले को दण्ड देने की बात तो दूर रही, उसके प्रति कठिन शब्द का प्रयोग करने पर भी व्रत दूषित हो जाता है । महाशतक श्रावक जब गृह कार्य त्याग कर और प्रतिमा वहन कर रहे थे, तब तथा संथारा कर चुके थे, तब इस तरह दो बार उनकी पत्नी रेवती श्रृंगार करके महाशतकजी को विचलित करने के लिए महाशतकजी के पास गई । वह महाशतकजी के सामने अनेक प्रकार के हाव-भाव करने लगी तथा महाशतकजी को विषय भोग का श्रामन्त्रण देने लगी । उसने इस तरह बहुत प्रयत्न किया लेकिन महाशतकजी दृढ़ ही बने रहे। रेवती, प्रथम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164