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अतिथि-संविभाग व्रत उदार व्यक्ति की कीर्ति, उस व्यक्ति के न रहने पर भी अमिट रहती है। बल्कि लोग प्रातःकाल उन लोगों का स्मरण विशेष रूप से करते हैं जो दान के द्वारा अपनी कीर्ति फैला गये हैं। इस विषय में पंडित कालीदास द्वारा कहा गया यह श्लोक भी प्रसिद्ध
देयं भोज्य धनं धनं सुकृतिभिर्नो, संचयस्तप्वैः श्री कर्णस्य बलेश्च विक्रम पते, रद्यापि कीर्तिस्था । अस्माकं मधुदान भोग रहितं, नष्टं चिरात् संचितं निर्वाणादिति नैज पाद युगलं, घर्षन्ति यो मक्षिकाः॥
(चाणक्यनीति अध्याय ११ वाँ) कहा जाता है कि राजा भोज ने एक मक्खी को पैर घिसते देख कर, कालिदास से प्रश्न किया कि यह मक्खी क्या कहती है? भोज के इस प्रश्न के उत्तर में कालिदास ने उक्त श्लोक कहा। इस श्लोक का भावार्थ यह है कि 'हे राजा भोज ! तुम्हारे पास जो धन है, वह सुकृत में लगा दो, संचय करके न रखो। कर्ण बलि और विक्रम की विमल कीर्ति इस भूतल पर अब तक भी इसी कारण फैली हुई है कि उनने अपने पास का धन सुकृत में लगाया था। मैंने (शहद की मक्खी ने ) अपना मधु रूपो द्रव्य न तो किसी को दिया, न स्वयं ही खाया। परिणाम यह हुआ कि वह मेरा चिर संचित द्रव्य नष्ट हो गया, यानि लोग लूट कर लेगये। मैं अपनी इस कृपणता के लिए पर घिस कर पश्चाताप करती हूँ। जो
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