Book Title: Shravak Ke Char Shiksha Vrat
Author(s): Balchand Shreeshrimal
Publisher: Sadhumargi Jain

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Page 148
________________ श्रावक के चार शिक्षा व्रत १३८ कहा गया है कि आनन्द श्रावक बहुत से गजा, राजेश्वर, तलवर, (कोतवाल) माडम्बी, कौटुम्बी, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि को कार्य में, कार्य के कारण में, मंत्र (सलाह) में, कुटुम्ब की व्यवस्था में, गुप्त विचारों में, रहस्य की बातों में, किसी बात के निश्चय पर आने में, व्यवहार कुशल था, पूछने लायक था और बार-बार पूछने लायक था। वह, उस नगर में मेढ़ो-प्रमाण आधार भूत, आलम्बन-भूत, चक्षु-भूत एवं मार्गदर्शक था। यदि आनन्द श्रावक जनहित के कार्यों से प्रारम्भ-समारम्भ के नाम से या और किसी बहाने से बचा रहता, कृपणता और अनुदारता का व्यवहार करता होता, तो वह इस प्रकार की प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त कर सकता था ! किसी मनुष्य का ऐसा प्रभाव तभी हो सकता है और उसे ऐसी प्रतिष्ठा भी तभी प्राप्त हो सकती है, जब उसमें सत्य के साथ ही उदारता भी हो। __धर्म में दान सब से पहला अंग है। सूत्रों में भी जहाँ किसी की ऋद्धि, सम्पदा आदि की प्राप्ति के कारण का प्रश्न किया गया है, वहाँ यह प्रश्न भी किया गया है कि इस व्यक्ति ने पूर्व जन्म में क्या दिया था। बल्कि दूसरे कारणों के विषय में प्रश्न करने से पहले इसी कारण के विषय में प्रश्न किया गया है। व्यवहार में भी वही व्यक्ति प्रतिष्ठित माना जाता है, जो उदार है। कृपण व्यक्ति प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकता, फिर चाहे वह कैसा भी क्यों न हो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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