Book Title: Shravak Ke Char Shiksha Vrat
Author(s): Balchand Shreeshrimal
Publisher: Sadhumargi Jain

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Page 150
________________ श्रावक के चार शिक्षा व्रत १४० योग मेरी तरह कृपण रहेंगे, उन्हें भी इसी प्रकार पश्चाताप करना पड़ेगा। क्योंकि कृपण का धन दान या भोग में नहीं लगता, किन्तु व्यर्थ हो नष्ट हो जाता है ।' घन किसी न किसी मार्ग से जाता जरूर है । वह एक जगह स्थिर नहीं रहता । फिर दान देकर उसका सदुपयोग क्यों न कर लिया जावे ! भर्तृहरि ने कहा है: - दानं भोगो नाशस्ति स्रो, गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुंक्ते, तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥ ( नीति शतक) अर्थात् - धन की दान. भोग और नाश ये तीन गतियें हैं। यानि दान देने से जाता है, भोग में लगाने से जाता है या नष्ट हो जाता है। जो धन न दान में दिया जाता है, न भोग में लगाया जाता है, उसकी तीसरी गति अवश्यंभावि है । यानि नष्ट हो जाता है । दान और भोग में न आया हुआ धन जब नष्ट ही हो जाता है, तब दान द्वारा उसका सदुपयोग ही क्यों न कर लिया जावे ! क्योंकि ऐसा न करने पर धन तो नष्ट हो ही जावेगा, तब पश्चाताप के सिवाय और बच पावेगा हो क्या ? इस बात को दृष्टि में रख कर ही, श्रावक के लिए उदारता रखने का उपदेश दिया जाता है । जो श्रावक इस उपदेश को कार्यान्वित करता है, वह अपने आत्मा का भी कल्याण करता है और संसार में जैन धर्म का महत्व भी फैलाता है। लोग समझने लगते हैं कि जैन धर्मानुयायी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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