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अतिथि-संविभाग व्रत
श्रावक धन के दास नहीं होते, किन्तु धन के स्वामी होते हैं और वे धन का सदुपयोग करते हैं, उनमें कृपणता नहीं होती, किन्तु उदारता होती है।
इस बारहवें व्रत का श्रेष्ठतम आदर्श तो है श्रमण निग्रन्थों को उनके कल्पानुसार प्रामुक और एषणिक चौदह प्रकार का
आहार देना। जो संसार-व्यवहार और गृहादि को त्याग चुके हैं, जिनको शरीर-रक्षा के लिए आहार एवं वस्त्र तथा संयम पालन के लिए आवश्यक उपकरणों को ही आवश्यकता रहती है, जिनने अन्य सभी आवश्यकताएँ निःशेष कर दी हैं, ऐसे महात्माओं को दान देने का फल महान है। इसलिए श्रावक का प्रयत्न यही रहना चाहिए कि ऐसे उत्कृष्ट पात्र को वह दान दे सके, और ऐसा दान देने के संयोग की प्राप्ति की ही भावना भी रखनी चाहिए। लेकिन इस तरह के संयोग विशेषतः उन्हीं लोगों को प्राप्त हो सकते हैं, जिनके द्वार अभंग हैं। यानि दान के लिए किसी के भी वास्ते बन्द नहीं है, किन्तु सभी अतिथियों के लिए खुले हैं। ऐसे लोगों को कभी ऐसे महात्माओं को दान देने का भी सुयोग मिल जाता है, जो गृह-संसार के त्यागो हैं और दान के उत्कृष्ट पात्र हैं। इसके विरुद्ध जिसका द्वार अतिथि के लिए बन्द रहता है, उसको ऐसा महान् शुम संयोग किस प्रकार मिल सकता है! इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त दिया जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com