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अतिथि - संविभाग व्रत के अतिचार
दाणन्तराय दोसा न देई दिज्जन्त यं च वारेई । दिण्णे व परितत्पई इति किवणता भवे भंगो ॥
अर्थात् - पूर्वं संचित दानान्तराय कर्म के दोष से ऐसी कृपणता रहती है कि स्वयं भी दान नहीं देता है, दूसरे को भी दान देने से रोकता है और जिसने दान दिया है, उसको परिताप पहुँचाता है । इस तरह की कृपणता से, अतिथि संविभाग व्रत भंग हो जाता है ।
अनेक लोग कृपणता के कारण दान भी नहीं देना चाहते और अपनी कृपणता को छिपाकर उदारता दिखाने एवं पात्र तथा अन्य लोगों की दृष्टि में भले बने रहने के लिए 'नाहीं' भी नहीं करते, किन्तु अतिचारों में वर्णित कार्यों का आचरण करने लगते है यानि या तो अचित पदार्थ में सचित पदार्थ मिला देते हैं या अचित पदार्थ पर सचित पदार्थ ढॉक देते हैं, या भोजनादि का समय टाल देते हैं, अथवा अपनी चीज को दूसरे की बता देते हैं । ऐसा करके वे कृपण लोग अपनी चीज भी बचा लेना चाहते हैं, और साधु मुनिराजों के समीप भक्त एवं उदार भी बने रहना चाहते हैं। लेकिन ऐसा करना कपट है, अतिचार है और व्रत को दूषित करना है। इसलिए श्रावक को ऐसे कामों से बचना चाहिए । इस कथन पर से कोई कह सकता है कि 'जिसमें दान देने की भावना ही नहीं है, उस व्यक्ति में दान देने की भावना से निपजने वाला बारहवाँ व्रत हो कहाँ है ! और जब व्रत नहीं है,
तब अतिचार कैसे ?' इस कथन
का समाधान यह है
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