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अतिथि-संविभाग व्रत
फिर उनसे स्वीकृति लेकर विदा हुआ। वह अपने साथ बहुत से उन लोगों को भी ले गया था, जो व्यापार करने की इच्छा रखते थे। समुद्र में एक देव ने अरणक को धर्म से विचलित करने के लिए उपसर्ग दिये, लेकिन अरणक अविचल ही रहा। तब वह देव अरणक को दो जोड़े दिव्य कुण्डल के देकर चला गया। अरणक ने उन दिव्य कुण्डलों पर भी ममत्व नहीं किया, किन्तु दूसरे को भेंट कर दिये।
राज प्रसेनी सूत्र के अनुसार राजा परदेशी ने श्रावक होते ही यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं राज्य की आय के चार भाग करूँगा, जिनमें से एक भाग दानशाला में व्यय किया करूँगा जिससे श्रमण माहण आदि पथिकों को शान्ति मिला करे। __ इस तरह के वर्णनों से स्पष्ट है कि श्रावक कृपण नहीं होता है, किन्तु उदार होता है। वह दूसरे की भलाई से सम्बन्धित कामों के प्रसंग पर आरम्भ-समारम्भ या दूसरी कोई आड़ लेकर बचने का प्रयत्न नहीं करता है। बल्कि वह जनहित का भी वैसा ही ध्यान रखता है, जैसा ध्यान अपना या कुटुम्ब के लोगों के हित का रखता है। बल्कि कभी-कभी वह, दूसरे की भलाई के लिए अपने आप को भी कष्ट में डाल देता है । ऐसे ही श्रावक, धर्म की प्रशंसा भी कराते हैं तथा राजा प्रजा में आदर भी पाते हैं।
उपासक दशान सूत्र में आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए
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