Book Title: Shravak Ke Char Shiksha Vrat
Author(s): Balchand Shreeshrimal
Publisher: Sadhumargi Jain

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Page 146
________________ श्रावक के चार शिक्षा व्रत १३६ को नहीं समझते थे! क्या प्रारम्भ-समारम्भ को घटाने विषयक तत्त्व को वे नहीं मानते थे! वे इस तत्त्व को न जानते रहे हों, यह सम्भव नहीं। क्योंकि उक्त वर्णन में आगे चल कर तुंगिया नगरी के श्रावकों के लिए कहा गया है कि वे आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष, इन तत्त्वों में कुशल थे। ऐसा होते हुए भी, वे दूसरे लोगों का पालन करने के समय आरम्भ, समारम्भ की आड़ नहीं लेते थे। क्योंकि उनमें उदारता थी, दया थी। आज के लोग शास्त्र में वर्णित बातों को पूरी तरह समझने के बदले, उनका दुरुपयोग कर डालते हैं। शास्त्रकारों ने इस विषय को स्पष्ट करने के लिए ही उनकी द्रव्य ऋद्धि व उनके कार्य आदि का विवरण दिया है और साथ ही यह भी बता दिया है कि वे कैसे तत्त्वज्ञ थे। इतना ही नहीं, किन्तु उनकी उदारता का भी परिचय दिया है और यह भी बताया है कि जनहित के समय वे भारम्भ-समारम्भ की आड़ नहीं लिया करते थे। मतलब यह है कि श्रावक अनुदार या कृपण नहीं होता है, किन्तु वह अपनी वस्तु का लाभ दूसरे लोगों को भी देता है। झाता सूत्र के आठवें अध्ययन में भरणक श्रावक का वर्णन है। उस वर्णन में कहा गया है कि जब अरणक श्रावक व्यापार के लिए विदेश जाने को तय्यार हुमा, तब उसने अपने कुटुम्बियों एवं सजातियों को सामन्त्रित करके प्रीति-भोजन कराया और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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