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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
१३२ हो सकता है, जब सिले हुए कपड़े आवश्यकता से अधिक न हों। लेकिन होता यह है कि लोग इतने अधिक सिले हुए कपड़े भर रखते हैं, कि जो वर्षों तक रखे रहते हैं, और जिन्हें पहनने का क्रम ही नहीं आता है। इसलिए विना सिला हुआ कपड़ा न रहने का कारण आर्थिक दुरावस्था नहीं हो सकता, किन्तु अविवेक हो हो सकता है। जिस में इस प्रकार का अविवेक है, वह मुनिराजों को प्रतिलाभित कैसे कर सकता है! यदि श्रावकों में इस विषयक विवेक हो, तो मुनिराजों को बजाज या पंसारी की दुकान पर वस्तु याचने के लिए क्यों जाना पड़े, जहाँ सचित द्रव्य के संघटे की सम्भावना रहती है और दूसरे दोषों को भी सम्भावना रहती है।
जैन शाखों में धर्म के चार अंग प्रधान कहे गये हैं। जिनमें से दान-धर्म, धर्म की पहली सीढ़ी है। दान के भेदों में भी अभय-दान और सुपात्र-दान को ही श्रेष्ठ कहा गया है। सुपात्र-दान वह है, जिसका द्रव्य भी शुद्ध हो, दाता भी शुद्ध हो और पात्र भी शुद्ध हो। इन तीनों का संयोग मिलने पर महान लाभ होता है।
द्रव्य शुद्ध हो, इस कथन का मतलब वस्तु की श्रेष्ठता नहीं है, किन्तु यह मतलब है कि जो द्रव्य अधः कर्मादि १६ दोषों से रहित हो, तथा जो मुनि महात्माओं के तप, संयम का सहायक एवं बर्द्धक हो। ऐसा ही द्रव्य शुद्ध माना जाता है। दावा वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com