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अतिथि-संविभाग व्रत शुद्ध है, जो बिना किसी प्रति-फल की इच्छा अथवा स्वार्थ भावना के दान देता है तथा जिसके हृदय में पात्र के प्रति श्रद्धा भक्ति हो । पात्र वह शुद्ध है, जो गृह-प्रपंच को त्याग कर संयम पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा हो और जो संयम का पालन करने के लिए ही दान ले रहा हो। इन तीनों बातों को ऐकीकरण होने पर ही श्रावक इस बारहवें व्रत का लाभ पाता है। बारहवें व्रत के पाठानुसार तो व्रत की व्याख्या यहाँ ही पूर्ण हो जाती है परन्तु इस व्रत का उद्देश्य केवल मुनि महात्माओं को ही दान देना इतना ही नहीं है, किन्तु श्रावक के जीवन को उदार एवं विशाल बनाना भी इस व्रत का उद्देश्य है। जीवन के लिए जो अत्यन्त आवश्यक है, उस भोजन में भी जब श्रावक दूसरे के लिए विभाग करता है, तब दूसरी ऐसी कौन-सी वस्तु हो सकती है, जिसमें श्रावक दूसरे का विभाग न करे, किन्तु जिसके अभाव में दूसरे लोग दुःख पावें और श्रावक उसको अनावश्यक हो भण्डार में ताले में बन्द कर रक्खे । श्रावक अपने पास के समस्त पदार्थों में दूसरे को भाग दे देता है
और पदार्थ पर से ममत्व उतार कर दूसरे की भलाई कर सकता है क्योंकि श्रावकपन स्वीकार करने के पश्चात् श्रावकवृत्ति स्वीकार करने वाले का जीवन ही बदल जाता है। श्रावकपन स्वीकार करने वाले के लिए शास्त्र में कहा गया है:
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