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अतिथि-संविभाग प्रत साधुओं को किन-किन चीजों का दान देना श्रावक का कर्तव्य है, यह बताने के लिए शास्त्र में निम्न पाठ आया है:
कप्पद में समणे निग्गन्थे फासु एसणिजं असणं पाणं खाइमं साइमं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुच्छणं तथा पडिहारे पीट्ठ फलग सिज्झा संथारा ओसह भेसजेणं पडिलाभे माणे विहरई।
अर्थात्- (श्रावक कहता है) मुझे श्रमण-निग्रन्थों को, अधः कर्मादि सोलह उद्गमन दोष और अन्य छब्बीस दोष रहित प्रासुक एवं एषणिक ( उन महात्माओं के लेने योग्य ) अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल (जो शीतादि से बचने के काम में आता है,), पादपोंछन ( जो जीव-रक्षा के लिए पूँजने के काम में आते हैं, वे रजोहरण या पूंजनी आदि), पीठ (बैठने के काम में आने वाले छोटे पाट ), फलक ( सोने के काम में आने वाले बड़े लम्बे पाट), शय्या (ठहरने के लिए घर), संथारा (बिछाने के लिए घास आदि ), औषध और भेषज* ये चौदह प्रकार के पदार्थ जो उनके जीवन-निर्वाह में सहायक हैं, प्रतिलाभित करते हुए विचरना कल्पता है।
ऊपर जो चौदह प्रकार के पदार्थ बताये गये हैं, इनमें से प्रथम के आठ पदार्थ तो ऐसे हैं, जिन्हें साधु महात्मा लोग स्वीकार करने के पश्चात् दान देने वाले को वापस नहीं लौटाते, लेकिन शेष छः द्रव्य ऐसे हैं कि जिन्हें साधु लोग अपने काम में
__* औषध उसे कहते हैं जो एक ही चीज को कूट या पीस कर बनाई हो और भेषज उसे कहते हैं जो अनेक चीजों के मिश्रण से बनी हो।
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