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श्रावक के चार शिक्षा प्रत
१२८ अतिथि-संविभाग का अर्थ है, अतिथि के लिए विभाग करना। जिसके आने का कोई दिन या समय नियत नहीं है, जो बिना सूचना दिये अनायास आ जाता है, उसे अतिथि कहते है। ऐसे अतिथि का सत्कार करने के लिए भोजनादि पदार्थ में विभाग करना अतिथि-संविभाग है और ऐसा करने की प्रतिज्ञा करने का नाम अतिथि संविभाग व्रत है। सूत्रों में इस व्रत को 'अहा संविभाग व्रत' कहा है, जिसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार लिखते हैं
यथा सिद्धस्य स्वार्थ निर्वति तस्स्येत्यर्थः असनादिः समिति संगतत्वेन पश्चात्कर्मादि दोष परिहारेण विभजनं साधवः दानद्वारेण विभाग करणं यथा संविभागः।
अर्थात् -अपने लिए बनाये हुए आहारादि में से, जो साधु एषणा समिति सहित पश्चात् कर्म दोष का परिहार करके अशनादि ग्रहण करते हैं, उनको दान देने के लिए विभाग करना अतिथि-संविभाग व्रत है।
जो महात्मा आत्मज्याति जगाने के लिए सांसारिक खटपट त्याग कर संयम का पालन करते हैं, सन्तोष वृत्ति को धारण करते हैं उनको जीवन-निर्वाह के लिए अपने वास्ते तय्यार किये हुए बाहरादि में से उन श्रमण-निग्रन्थों के कल्पानुसार दान देना, यथा संविभाग व्रत है। साधु महात्मा को श्रावक अपने लिए बनाई गई चोखों में से कौन कौन-सी चीजें दे सकता है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com