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देशावकाशिक व्रत की दूसरी व्याख्या
पौषध किया है, उसी स्थान पर उपस्थित होकर सामायिकादि धर्म कार्य में लग जावे ।
पाहार करने पर निहार भी करना अनिवार्य होता है। इसलिए पौषध में निहार-उभार प्रस्रवण आदि परठने की
आवश्यकता हो, तप 'आवस्सही आवस्सही' कह कर साधु की तरह ईर्या शोधता हुआ और यदि रात हो तो पूँजता हुआ स्थंडिल भूमि पर जावे । वहाँ भूमि का परिमार्जन या प्रतिलेखन करके, शक्रेन्द्र महाराज की आज्ञा माँग कर परठे। परठने के पश्चात् मासुक जलादि से शुद्धि * करके, तोन वार 'वोसिरे वोसिरे' कहे और फिर अपने स्थान पर आकर 'निस्सही निस्सही' कह कर तथा ईर्यावहि का कायोत्सर्ग कर ज्ञान, ध्यान में तल्लीन हो जावे। -
पौषध के दिन, दिन के पिछले प्रहर में पहनने तथा लोढ़ने, बिछाने के वस्त्र और मुखवत्रिका रजोहरण आदि का प्रतिलेखन करके, रात में शयन करने के लिए संथारा जमा ले। दिवस की समाप्ति पर देवसी प्रतिक्रमण करके परमात्मा का गुणानुवाद तथा स्वाध्याय, मान, भ्यान आदि करे। जब एक प्रहर गत व्यतीत हो जावे, उसके बाद परमात्मा का स्मरण करता हुवा रजोहरण से अपना शरीर एवं संथारा का ऊपरी भाग पूंजे और निद्रा का
® यह विशेष उच्चार (बड़ी नीत) के लिये है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com