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देशावकाशिक व्रत की दूसरी व्याख्या
हों + उस स्थान पर उपस्थित होना चाहिए | पश्चात् साधुनी महाराज को वन्दन नमन करके, अपने शरीर और वस्त्रों का प्रतिलेखन करे, तथा उच्चार प्रस्रवण आदि परठने योग्य चीजों को परठने की भूमि का परिमार्जन करे । फिर ईर्ष्या पथिकी क्रिया के पाठ से, उस क्रिया से निवृत्त होकर गुरु महाराज या बड़े श्रावक और जब अकेला ही हो तब स्वतः गुरु महाराज की आज्ञा लेकर पौषध व्रत ( दया या छः काया ) स्वीकार करे, तथा सामायिक व्रत लेकर स्वाध्याय, ज्ञान, ध्यान श्रादि से धर्म का पुष्ट अवलम्बन ग्रहण करे। ऐसा कोई कार्य न करे कि जिससे व्रत में बाधा पहुँचे । यदि स्वाध्याय करने की योग्यता न हो, तो नमस्कार मन्त्र का जाप करे और गुरु महाराज उपदेश सुनाते हों, तो उपदेश श्रवण करे । पश्चात् सामायिकादि पाठ कर आहार करने के लिए जावे । आहार करने के लिए जाने के समय, पौषधशाला से निकलते हुए 'आवस्सही आवस्सही' कहे और मार्ग में यत्नापूर्वक ईर्या शोधन करता हुआ चले । भोजन करने के स्थान पर पहुँच कर, ईर्यापथिक कायोत्सर्ग करे | फिर भोजन करने के पात्र का प्रतिलेखन करके आहार करने बैठे । उस समय यह भावना करे कि 'मुझे आहार तो करना
+ श्राविका को अपनी पौषधशाला या महासतियों के स्थान में उपस्थित होना चाहिये ।
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