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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
कहते हैं, जिसके द्वारा धर्म का पोषण किया जावे। पौषध की व्याख्या करते हुए कहा गया है किपोषं-पुष्टि प्रक्रमाद् धर्मस्य धत्ते करोतीतिपौषधः ।
अथवा पोसे इ कुशल धम्मे, जंता हारादि चागऽणुढाणं । इह पोसहो त्तिमणति, विहिणा जिण भासिएणेय ॥
अर्थात्-प्राणातिपात विरमण आदि के शुभ आचरणों द्वारा धर्म को पोषण देना, पौषध है।
पूर्वकाल में इस तरह के पौषध होने का प्रमाण श्री भगवती सूत्र के १२ वें शतक के प्रथम उद्देशे में शंखजी और पोखलीजी श्रावक के अधिकार में पाया जाता है, जिनने आहार करके पक्खी पौषध किया था। इस पौषध को करने के लिए, पाँच आस्रव द्वार के सेवन का त्याग करके सामायिकादि में समय लगाना चाहिए। यह व्रत स्वीकार करने वाले श्रावक को, व्रत के दिन किस प्रकार की चा रखनी चाहिए, यह संक्षेप में बताया जाता है।
श्रावक को जिस दिन पोषध (ल्या या छः काया) करना है, उस दिन समस्त सावध व्यापार त्याग कर, पौषध करने योग्य धर्मोपकरण लेकर पोषधशाला अथवा जहाँ साधु महात्मा विराजते
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