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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
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प्रमाद मिटा ले। फिर रात के पिछले पहर में जागृत होकर निद्रा लेने के समय देखे गये कुस्वप्न और दुःस्वप्न के लिए कायोत्सर्ग करके, स्वाध्याय या परमात्मा के भजन में मग्न हो जावे। लेकिन उस समय इस तरह न बोले, जिससे दूसरे की निद्रा भंग हो जावे। फिर समय होने पर रायसी प्रतिक्रमण करके सूर्योदय हो जाने पर ओढ़ने, बिछाने तथा पहनने के वस्त्र एवं मुखवत्रिका रजोहरण आदि का प्रतिलेखन करके यह जाने कि सोते समय मेरी असावधानी से किसी जीव की विराधना तो नहीं हुई है ! पश्चात् पौषध (दया या छः काया) का प्रत्याख्यान पाले।
यह पाँच अणुव्रतों के पालन और पाँच प्रास्रव द्वार के सेवन का त्याग करने रूप पूर्ण दिन रात के देशावकाशिक व्रत की बात हुई। अब थोड़े समय के लिए पाँच मानव के सेवन का त्याग करने रूप देशावकाशिक व्रत का स्वरूप बताया जाता है। इस प्रकार के देशावकाशिक व्रत को आधुनिक समय में 'संवर' कहा जाता है। थोड़े समय के देशावकाशिक व्रत यानि संवर के विषय में कहा गया है कि
दिग्वतं यावज्जीव, संवत्सर चातुर्मासी परिमाणं वा देशावकासिकं तु, दिवस प्रहर मुहर्तादि परिमाणं ।
अर्थात्-दिकवत जीवन भर, वर्ष भर या चार मास के लिए स्वीकारा जाता है, इसी तरह देशावकाशिक व्रत दिन, प्रहर या मुहूर्त आदि के लिए भी किया जाता है।
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