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पौषधोपवास व्रत भूमि पडिलेहि पडिलेहित्ता दम्भ संथारं संथरह संथरहत्ता दभ संथारं दुरूहाँ दुरूहईत्ता अट्ठमभत्तं पग्गिण्हइ पग्गिण्हइत्ता पोसहसालाए पोसहिए अट्ठम भत्तं पोसहं पडि जागर माणे विहरई। __ अर्थात् वह सुबाहुकुमार ( श्रमणोपासक ) किसी समय चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या या पूर्णिमा आदि पर्व दिन में जहाँ पर अपनी पौषधशाला थी वहाँ आया। उसने सब से पहले पौषधशाला को स्वच्छ किया और परिमार्जन करके यह देखा कि कहीं ऐसे जीव तो नहीं हैं, जिनके कारण मेरे पौषध व्रत में कोई बाधा पहुँचे तथा असावधानी में मेरे से उन जीवों की विराधना हो जावे। फिर उसने ऐसी भूमि का निरीक्षण और परिमार्जन किया, जिसे परठने की भूमि अथवा स्थण्डिल भूमि कहते हैं और शारीरिक धर्म के कारण मल-मूत्र त्याग कर जहाँ परठा जा सके। फिर पौषधशाला में दर्भादिक (घास ) का संथारा (बिछौना) किया। उस संथारे पर बैठकर उसने अष्टम भत्त यानि तीन दिन के उपवास ( तेला) की तपस्या स्वीकार की और वह चारों प्रकार के पौषध सहित समाधि-भाव में आत्मा को स्थिर करके विचरने लगा।
सुबाहुकुमार राजपुत्र था। वह पाँचसो रानियों का पति था, उसके यहाँ प्रचुर संख्या में दासी-दास थे। यह सब होते हुए भी वह श्रावक था। सुबाहुकुमार केवल नाम का ही श्रावक न नहीं कर सकता, उसी प्रकार व्यापार करके भी ग्यारहवाँ पौषध व्रत नहीं किया जा सकता। किन्तु इस नियम की ओर लोगों का लक्ष्य कम ही रहता है । ग्यारहवाँ व्रत, चारों प्रकार के पौषध और सामायिक सहित ही हो सकता है। सामायिक रहित या चारों प्रकार के पौषध का देश से पालन करने पर ग्यारहवाँ वत नहीं हो सकता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com