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श्रावक के चार शिक्षा प्रत
ऐसे समत्व की आय ( समत्व का लाभ ) 'समाय' कहलाता है। इस समाय में जिस क्रिया के द्वारा प्रवृत्ति की जाती है, उसी क्रिया को सामायिक कहते हैं।
टीकाकार के इस कथन से स्पष्ट है कि सामायिक शब्द 'सम' और 'पाय' इन दो शब्दों के संयोग से 'क' प्रत्यय लगकर बना है। सम+ आय-समाय का मतलब है समभाव को प्राप्ति । इस प्रकार जिस क्रिया के द्वारा समभाव की प्राप्ति होती है और राग-द्वेष कम पड़ता है, विषय-कषाय की बाग शान्त होकर चित्त स्थिर होता है तथा सांसारिक प्रपंचों को ओर आकर्षित न होकर मात्मभाव में रमण किया जाता है, उस क्रिया को शासकार 'सामायिक' कहते हैं। __ वस्त्र उतार कर आसन बिछा के बैठ जाना और मुख-वत्रिका मुख पर बाँध रजोहरण, पूंजनी, माला आदि धारण करना, सामा. यिक के अनुरूप साधन अवश्य हैं, लेकिन इन साधनों को लेकर बैठ जाना ही सामायिक नहीं है। सामायिक तो तब है, जब उक्त साधनों से युक्त होकर स्याज्य कार्यों को त्याग दिया जावे और चित्त को शान्त तथा एकाग्र करके प्रशस्त विचार किया जावे। यानी आत्म अनात्म अथवा जीव और पुद्गल के स्वरूप को विचार किया जावे, या पदस्थ पिंडस्थ श्रादिचार प्रकार के ध्यान में आत्मा को लगा दिया जावे। पदस्थ पिंडस्थ आदि ज्यान प्रात्मा का साया
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