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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
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वही व्यक्ति दूसरे साहित्य से लाभ उठा सकता है। जिसको प्राप्त वचन का बोध नहीं है, वह व्यक्ति यदि दूसरा साहित्य देखेगा, तो लाभ के बदले हानि ही उठावेगा।
२-मन को स्थिर करने का दूसरा साधन 'पूछना' है। प्राप्त-साहित्य के वांचन से हृदय में तर्क-वितर्क का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। क्योंकि आप्त वाक्य अनन्त आशय वाले हैं, छमस्थ व्यक्ति पूरी तरह नहीं समझ सकता । इसलिए हृदय में उत्पन्न तर्क-वितर्क के विषय में विशेष ज्ञानी से पूछ-ताछ करके समाधान किया जाता है।
३-तीसरा साधन 'पर्यटना' है। जो जानकारी प्राप्त की है, जो ज्ञान मिला है, उसे हृदयंगम करने के लिए उस ज्ञान का बार बार चिंतन करना, पर्यटना है। जब तक ज्ञानावरणीय कर्म का आवरण नहीं हटता है, तब तक प्राप्त ज्ञान भी नहीं टिकता। इसलिए प्राप्त ज्ञान का पुनः पुनः आवर्तन अथवा पारायण करते रहना चाहिए। सामायिक में पर्यटना करने से चित्त स्थिर रहता है और आत्मा पर-भाव में नहीं जाता है।
४-चोथा साधन प्राप्त ज्ञान के बाह्य रूप से ही सन्तुष्ट न होकर उसके भीतरी तत्त्व की खोज करना 'अनुप्रेक्षा' है। यानि प्राप्त शान से मुझे क्या बोध लेना चाहिए इस बात को दृष्टि में रख कर प्राप्त ज्ञान के अन्तस्तल तक पहुँचने का प्रयत्न करना और
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