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सामायिक से लाभ
प्रदान करने लगे, फिर भी अपने मन में किसी भी प्रकार का विषम भाव न लावे, राग द्वेष न होने दे, किसी को प्रिय अप्रिय न माने, हृदय में हर्ष शोक न होने दे, किन्तु अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थिति को समान माने, दुःख से छूटने या सुख प्राप्त करने का प्रयत्न न करे, यह माने कि ये पौद्गलिक संयोग वियोग आत्मा से भिन्न हैं और आत्मा इनसे भिन्न है, इन संयोग वियोग से न तो आत्मा का हित ही हो सकता है न अहित हो, ऐसा सोच कर जो समभाव में स्थिर रहते हैं, उन्हीं की सामायिक सफल है । इस प्रकार जिनमें आत्म हढ़ता है, वे दो सामायिक को सफल बना सकते हैं। इसके विरुद्ध जिनकी आत्मा कमजोर है, वे लोग थोड़ा दुःख होते ही घबरा कर और थोड़ा सुख होते ही प्रसन्न होकर सामायिक के ध्येय को भूल जाते हैं वे सामायिक को सफल नहीं बना सकते। जिनकी आत्मा दृढ़ है, वे लोग यह भावना रखते हैं, कि
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होकर सुख में मग्न न फूलूँ, दुःख में कभी न घबराऊँ । पर्वत नदी स्मशान भयंकर, अटवी से नहिं भय खाऊँ ॥ रहूँ सदा अडोल अकम्पित, यह मन दृढ़तर बन जावे । इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, सहन शीलता दिखलावे ॥
जो इस प्रकार की भावना रखता है और ऐसी भावना को कार्यान्वित करता है, वही प्रत्येक स्थिति में समभावी रह सकता है और सामायिक का फल प्राप्त करता है ।
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