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श्रावक के चार शिक्षा प्रत
दृढ़ है। इसलिए उसे वश करना वैसा ही दुष्कर जान पड़ता है, जैसा दुष्कर वायु को वश में करना है।
अर्जुन के इस कथन के उत्तर में कृष्ण ने कहाअसंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ अर्थात्-हे महाबाहु ! निःसन्देह मन चंचल और दुर्निग्रह है परन्तु हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य से मन को भी वश में किया जा सकता है।
सामायिक करना मन को वश में करने का अभ्यास है। इसलिए समभाव प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाले को चाहिए कि वे मन को ऐसे प्रशस्त कामों में लगा कि जिसमें वह इन्द्रियों के साथ विषयों की ओर न दौड़े और न इन्द्रियाँ ही विषय-लोलुप हों। इसके लिए सामायिक ग्रहण किये हुए व्यक्ति को निकम्मा न बैठना चाहिए, न सांसारिक प्रपंच की बातों में ही लगना चाहिए । निकम्मा बैठना, इधर उधर को सांसारिक प्रपंचपूर्ण अथवा विषयविकार से भरी हुई ऐसी बातें करना जिनसे अपने या दूसरे के
हृदय में रागद्वेष बढ़े, सामायिक का उद्देश्य भूलना है। और जब । उद्देश्य ही विस्मृत कर दिया जावेगा तब क्रिया सफल कैसे हो
सकती है! इसलिए सामायिक के समय ऐसे सब कार्य त्याग कर सूत्र सिद्धान्त का अध्ययन-मनन करना चाहिए, तत्त्वों का विचार करना चाहिए, अथवा जिनका ध्यान स्मरण करने से परमपद की
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