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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
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न रहे। इसलिए सामायिक करने वाले मुमुक्षु को इस बात की सावधानी रखनी चाहिए और यह पता लगाते रहना चाहिए, कि मेरे मन की चंचलता मिटी है या नहीं और इन्द्रियाँ विषय लोलुप होकर विषयों को ओर दौड़ती तो नहीं हैं ! सामायिक मन और इन्द्रियों की चंचलता मिटाने का अभ्यास है। अतः सामायिक को शुद्धता और सफलता तभी समझनी चाहिए, जब इन्द्रियाँ विषयों की ओर आकर्षित न हों और मन इधर-उधर न दौड़े। चाहे जैसे सुहावने शब्द या गान-वाद्य हो अथवा चाहे जैसे कठोर एवं कर्कश शब्द हों, उनको सुनकर कान न तो हर्षित हों और न व्याकुल हो हों। सामने चाहे जैसा सुन्दर या भयंकर रूप आवे, आँखें उस रूप को देखकर न तो प्रसन्नता माने न व्यथित या भीत हों। इसी प्रकार जब पाँचों इन्द्रियाँ अनुकूल विषय की ओर आकर्षित न हों, प्रतिकूल विषय से घृणा न करें, तथा मन में भी ऐसे समय पर रागद्वेष न आवे किन्तु समतोल रहे, तब समझना कि हमारी सामायिक शुद्ध है एवं हमारी साधना सफलता की ओर बढ़ रही है। यदि इसके विरुद्ध प्रवृत्ति हो, तो उस दशा में साधना यानि अनुष्ठान का सफल होना कठिन है। इसलिए सामायिक करने वाले को इन्द्रियों और मन की चंचलता मिटाने तथा प्रत्येक दशा में समाधिभाव रखने का प्रयत्न करना चाहिए और इसी बात को अपना लक्ष्य बनाकर इस लक्ष्य को मोर अधिक से अधिक बढ़ते जाना चाहिए। ऐसा
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