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सामायिक का उद्देश्य
यह प्रतिज्ञा करता है कि इतने समय के लिए मैं मन, वचन और काय द्वारा न तो कोई पाप करूँगा ही और न कराऊँगा ही। इसके विरुद्ध सर्व सामायिक स्वीकार करने वाला सामायिक ग्रहण करने के समय यह प्रतिज्ञा करता है, कि मैं जीवन भर मन, वचन, काय द्वारा न तो कोई पाप करूँगा, न कराऊँगा और न किसी पाप का अनुमोदन हो करूँगा । यानि सर्व सामायिक स्वीकार करने वाला व्यक्ति पाप के अनुमोदन का भी त्याग करता है ।
तात्पर्य यह है कि सामायिक दो प्रकार की होती है। एक तो इतर और दूसरी आव । यानि एक तो देश सामायिक और दूसरी सर्व सामायिक | इतर सामायिक थोड़े समय के लिए ग्रहण को जाती है और सर्व सामायिक जीवन भर के लिए। दोनों प्रकार की सामायिक का उद्देश्य तो यही है, कि जो आत्मा अनादिकाल से विषय-कषाय में फँसकर पापपूर्ण कार्य करने के कारण कर्मों के लेप से भारी हो रहा है, उस आत्मा को इन कार्यों के त्याग और समभाव की प्राप्ति द्वारा हल्का किया जावे। देश या सर्व सामायिक, पूर्ण समभाव प्राप्त करने का अनुष्ठान है । लेकिन अनुष्टान तभी सफल होता है, जब वह विधिपूर्वक किया जावे और आत्मा एकाग्र होकर उस अनुष्ठान को करे । अनुष्ठान तब तक सिद्ध नहीं हो सकता, जब तक चित्त में एकाग्रता न हो और चित्त तभी एकाप्र
हो सकता है, जब उसको स्थिर किया जावे तथा इन्द्रियों में चंचलता
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