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सामायिक से लाभ नहीं है, किन्तु सामायिक का फल निर्जरा अथवा राग द्वेष रहित सम-भाव की प्राप्ति है। श्री दशवैकालिक सूत्र के नववें अध्ययन के चौथे उद्देशे में यह स्पष्ट कहा गया है, कि आत्मकल्याण के लिए किये जाने वाले अनुष्ठान इहलौकिक सुख, पारलौकिक ऋद्धि, या कीर्ति श्लाघा, महिमा आदि के लिए नहीं, किन्तु केवल निर्जरा के लिए ही होने चाहिए। यही बात सामायिक के लिए भी है। आत्मा के लिए जो असमाधि के कारण हैं, उन सांसारिक उपाधियों से छूटने के लिए ही सामायिक की जाती है। इसलिए सामायिक का फल ऐसी उपाधियों के कारण होने वाली पाप प्रवृत्ति का त्याग ही है। यह फल, बहुत अंश में सामायिक ग्रहण करते ही प्रत्यक्ष हो जाता है। अर्थात् जिस समय सामयिक ग्रहण की जाती है, उसी समय आध्यात्मिक सुख में बाधक प्रवृत्तियों से छुटकारा मिल जाता है और समाधि का अनुभव होने लगता है। सांसारिक उपाधियों का छूटना ही सम-भाव है और सम-भाव की प्राप्ति ही सामायिक का फल है।
इस प्रकार सामायिक का फल तत्काल प्राप्त होता है। यदि सामायिक ग्रहण करते ही उक्त फल न मिला, समभाव न हुमा, आत्मा विषय-कषाय की आग से जलता ही रहा, पोद्गलिक सुखों की लालसा न मिटी, तो समझना कि अभी न वो हम विधिपूर्वक सामायिक ही ग्रहण कर सके हैं, न हमको सामायिक का फल
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