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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
४ मैथुन-मोह दशा से विकल होकर स्त्री आदि मोहक पदार्थ पर आसक्त हो सी पुरुष का परस्पर वेद-जन्य चेष्टा करना (विकार में प्रवृत्त होना) मैथुन है। 'मैथुन' में फंसे हुए लोग अकृत्य कार्य भी कर डालते हैं और आत्म-भाव को भूल जाते हैं। इसलिए 'मैथुन' भी पाप है।
५ परिग्रह-किसी भी सचित अचित अथवा मिश्र पदार्थ के प्रति ममस्व रखना, उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करना, प्राप्त पदार्थ का संग्रह करना, उन्हें अपने अधिकार में रखने की चेष्टा करना और उनके प्रति आसक्त रहना 'परिग्रह' है। परिग्रह के लिए अनेक अनर्थ किये जाते हैं, इसलिए यह भी पाप है ।
६ क्रोध-किसी निमित्त के कारण अथवा अकारण अपने या दूसरे के आत्मा को तप्त करना 'क्रोध' है। जब क्रोध होता है तब अज्ञानवश हिताहित नहीं सूझता है, लेकिन क्रोधावेश में किये गये कार्य के लिए फिर पश्चात्ताप पोता है। क्रोध, कलह का मूल है इसलिए 'क्रोध' भी पाप है।
७ मान-दूसरे को तुच्छ और स्वयं को महान मानना 'मान' है। मानी व्यक्ति ऐसे ऐसे शब्दों का प्रयोग कर डालता है जिन्हें सुनकर दूसरे को बहुत दुःख होता है और दूसरे के हृदय में प्रति-हिंसा की भावना जागृत होती है। इसलिए 'मान' भी पाप है।
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