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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
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१२ कलह-किसी भी प्रशस्त संयोग के मिलने से मन में कुदकर वाग्युद्ध करना 'कलह' है। कलह से अपने मात्मा को भी परिताप होता है और दूसरे को भी। इसलिए 'कलह' भी पाप है।
१३ अभ्याख्यान किसी भी मनुष्य पर कोई बहाना पाकर दोषारोपण करना, कलङ्क चढ़ाना, 'अभ्याख्यान' है, जो पाप है।
१४ पैशुन्य-किसी मनुष्य के सम्बन्ध में चुगली खाना इधर की बात उधर लगाना 'पैशुन्य' है । 'पैशुन्य' की गणना भी पाप में है।
१५ परपरिवाद-किसी की बढ़ती न देख सकने के कारण उस पर सच्चा झूठा दूषण लगा कर उसकी निन्दा करना 'परपरिवाद' है। यह भी पाप है।।
१६ रति अरति-निज स्वरूप को भूल कर पर भाव में पड़ा हुश्रा पुद्गलों में आनन्द मानने वाला व्यकि अनुकूल वस्तु की प्राप्ति से आनन्द भोर प्रतिकूल वस्तु की प्राप्ति से दुःख मानता है। यह 'रति अरति' है, जो पाप है।
१७ माया मृषा-कपट सहित झूठ बोलना, यानी इस तरह चालाकी से बोलना या ऐसा व्यवहार करना कि प्रकट में सत्य पोखे परन्तु वास्तव में झूठ है और जिसको दूसरा व्यक्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com