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सामायिक का उद्देश्य
करने में समर्थ है, तथा असाध्य को भी साध्य बना सकता है। इसलिए यही उचित है कि आत्मा को सावधान रखकर क्रिया को जावे। क्रिया करने का कोई ध्येय तो अवश्य ही होना चाहिए | आत्म-कल्याण के लिए समभाव की प्राप्ति को ध्येय बना कर क्रिया करना ही श्रेष्ठ है। समभाव प्राप्त करने के लिए अभ्यास रूप जो क्रिया की जाती है, उस क्रिया का नाम ही ।। सामायिक है। सामायिक का स्वरूप बताने के लिए कहा गया है, कि
सावध कर्म मुक्तस्य, दुर्ध्यान रहितस्य च ।
समभावो मुहूर्तं तद्, व्रतं सामायिकाव्हयम् ॥ । अर्थात् सावद्य ( पाप सहित ) कर्म से मुक्त होकर, आत्मा को पतित करने वाले आर्त रौद्र ध्यान को दूर करके आत्मा को पवित्र बना कर मुहूर्त मात्र के लिए समभाव धारण करना ही सामायिक व्रत है । ___ सामायिक ग्रहण करने के पाठ से भी सामायिक की यही व्याख्या ध्वनित होती है। सामायिक प्रहण करने के पाठ में भी यह प्रतिज्ञा की जाती है कि
करेमि भंते सामाइयं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जाव नियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा तस्स भंते पडिक्कमामि निन्दामि गरहामि अप्पाणं बोसिरामि।।
अर्थात्-(सामायिक ग्रहण करने वाला कहता है ) हे भगवन् ! मैं सामायिक व्रत ग्रहण करता हूँ और जितने समय के लिए मैं नियम
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