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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
१८ जैसा शान्त तथा गम्भीर बनाकर, उस समुद्र में रहे हुए कमल का ध्यान करे और उस कमल के मध्य की कर्णिका पर आत्मा को स्थित करे।
अमि की कल्पना करने में, यह माने कि पृथ्वी तत्त्व विषयक कमल की कणिका पर स्थित आत्मा, कर्म-मल को पवित्र भावना रूपी अमि से भस्म करने में समर्थ है।
वायु की कल्पना में यह माने, कि पवित्र भावना रूपी अग्नि द्वारा जलाये गये कर्म-मल की भस्मराशि उड़ जाने पर आत्मा निर्मल और शुद्ध होता है।
जल के विषय में, जिस पर को भस्मराशि उड़ गई है, उस आत्म-तत्त्व को निर्मल रखने के लिए जलधार की कल्पना करे और उस जलधार से आत्मा पर लगे हुए भस्मकण धोकर आत्मा को शुद्ध करे।
तत्त्व रूपवती की कल्पना में, निर्मल तथा ज्योतिर्मय प्रात्मा के स्वरूप का दर्शन करे। ___ यह पिण्डस्थ ध्यान की बात हुई। आगे रूपस्थ ध्यान के विषय में कवि कहता है
सर्व विभव युत जान, जे ध्यावे अरिहन्त को।
मन वसि करि सति मान, ते पावें तिस भाव को॥ (सोरठा) अर्थात् --ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय के धारक, अष्ट महा प्रतिहार, चौतीस अतिशय और वाणी के पैंतीस गुण-युक्त, इन्द्र तथा देवों के
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