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श्रावक के चार शिक्षा व्रत
पूर्ण जीवन और दूसरा है श्रावकत्व-पूर्ण जीवन । जिनका जीवन साधुता-पूर्ण है, उनके लिए तो सांसारिक बन्धन के सभी तंतु टूट जाते हैं और उनका प्रयत्न मोक्ष प्राप्त करने का ही रहता है । किन्तु गृहस्थ-श्रावक के सामने अनेक सांसारिक झंजट एवं अनुकूल प्रतिकूल आकर्षण रहते हैं तथा उन्हें कौटुम्बिक और जीवनयापन सम्बन्धी बाधाएँ भी घेरे रहती हैं। इन सब के होने पर भी श्रावक के लिए श्रात्म-कल्याण के हेतु श्रावकत्व-पूर्ण जीवन बिताना आवश्यक है। इस बात को दृष्टि में रख कर ही शास्त्रकारों ने, श्रावकों के लिए पाँच मूल व्रत की रक्षा के उद्देश्य से, मूळ व्रत को सिंचन देने वाले तीन गुण व्रत और चार शिक्षा व्रत का विधान किया है। जिस प्रकार मूल को सिंचन मिलता रहने पर ही वृक्ष हरा-भरा रहता है, उसी प्रकार श्रावक के पाँच मूल व्रत भी तभी विशुद्ध रहेंगे जब उन्हें गुण व्रत और शिक्षा व्रत द्वारा सिंचन मिलता रहेगा। , शिक्षा व्रत स्वीकार करने का अर्थ है, आत्मा को जागृत रख
कर शुद्ध दशा प्रकटाने के लिए विशेष उद्यमी बनाना। इसलिए जब यह देखते हैं, कि श्रावक के बारह व्रत में से पिछले चार व्रतों को शिक्षा व्रत क्यों कहा जाता है, इन चार व्रतों से शेष माठ व्रतों का क्या सम्बन्ध है और इन चार व्रतों का पिछले बाठ व्रतों पर क्या प्रभाव पड़ता है।
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