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(xiv) में अब भी प्रतिबिम्बित है, जिनके स्नेह ने मुझे निरन्तर आगे बढ़ाया, उन महामनीषी के प्रति यह तुच्छ लेखनी कृतज्ञता ज्ञापित करती हुई कभी उस उपकार को नहीं भूल सकती। ____ अनुवाद के इस क्रम में राणावास का वह चतुर्मास सानन्द बीत गया और पुनः आचार्यश्री (गणाधिपति) एक लम्बी यात्रा पर गतिमान हो गए। नाथद्वारा में मर्यादा-महोत्सव संपन्न कर अहमदाबाद तथा बाव की यात्रा करते हुए बालोतरा चतुर्मास हेतु पधार गए। पुनः एक बार युवाचार्यश्री (आचार्यश्री) को स्वास्थ्यलाभ के लिए एक महीना अहमदाबाद में रुकना पड़ा और फिर माऊंट आबू होते हुए गणाधिपति के साथ ही बालोतरा पधार गए। कहीं मेरे कार्य में श्लथता आई तो कहीं तीव्रता। मैंने अपने प्रयत्न को निरन्तर जारी रखा और अन्ततः यह अनुवाद-कार्य बालोतरा में परिसंपन्न हो गया। इस लघुकृति में इतना अधिक समय लगा, यह मुझे बहुत अखरा, किन्तु पाठ और अनुवाद की सम्यक् युति मेरे लिए प्रमोद और अन्तस्तोष का विषय थी। मैंने अपनी ओर से अप्रमत्तदृष्टि से इसे अनूदित और संपादित करने का प्रयत्न किया है। ग्रन्थ की उपयोगिता के लिए पारिभाषिक शब्द तथा प्रत्येक भावना से संबंधित कथाओं को भी परिशिष्ट में जोड़ा है।
गणाधिपतिश्री तुलसी, जिनके कुशल नेतृत्व में तेरापंथ धर्मसंघ ने बहुत विकास किया, जिनके कुशल हाथों से अनेक साधु-साध्वियों का निर्माण हआ, उनके निरन्तर सान्निध्य में रहकर मैं भी यत्किंचित् ऊर्जा का संचय कर सका, यह मुझे परम प्रसन्नता है।
मैं मुनि दुलहराजजी स्वामी को भी कैसे भूल सकता हूं, जिनके साहचर्य ने मुझे सदा उत्प्रेरित किया, जिनका पाथेय प्रतिपल मुझे मिलता रहा। उन्होंने अपना बहुमूल्य समय निकालकर इस ग्रन्थ का आदि से लेकर अन्त तक अवलोकन किया, इस अनुग्रह का भी अपना एक विशेष मूल्य है। आज वे मेरे समक्ष नहीं है। उनकी चिरस्मृतियां मेरे स्मृतिप्रकोष्ठों को निरन्तर झकझोर रही हैं।
सन् १९८४, लाडनूं में युवाचार्यप्रवर (आचार्य महाप्रज्ञ) ने महती कृपा कर यह ग्रन्थ साधु-साध्वियों और समणियों को पढ़ाया। इसके अध्यापन से एक प्रकार से ग्रन्थ का कायाकल्प हो गया। यत्र तत्र प्रमादवश जो भूलें इसमें रह गई थीं पुनः उनका संशोधन और परिमार्जन हो गया। इस कार्य में उस