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(xiii)
यत्र तत्र कुछ पाठों में भी परिवर्तन करना पड़ा। सत्यसंधित्सु के लिए ऐसा करना आवश्यक भी होता है। यह ग्रन्थ के गौरव का ही कारण बनता है। पाठ-संशोधन के कुछेक उदाहरण इस प्रकार हैं
___१. रिपुमपि सृजति वयस्यम् (गी. ९।३)। इस चरण में व्याकरणदोष, अर्थ की विसंगति और लयदोष के कारण 'व्रजति' के स्थान पर 'सृजति' पाठ किया गया है।
२. पादौ यस्य व्यायतौ सप्तरज्जूः (गी. ११। श्लोक १)। ___ यहां अध्वनि अर्थ में ‘सप्तरज्जूः' में द्वितीया विभक्ति की गई है। यदि इसे ‘पादौ' का विशेषण मानकर स्वीकार करें तो अर्थ की अधिक संगति नहीं बैठती, क्योंकि इससे आगे के श्लोक में 'रज्जुमेकां' का प्रयोग द्वितीया विभक्ति का है।
____३. सद्धर्मध्यानसंधान.... (गी. १३। श्लोक. १)।
इस श्लोक में पुनरुक्तदोष के कारण सध्यान के स्थान पर संधान पाठ को लिया गया।
४. किं खिद्यसे वैरिधिया परस्मिन् (गी. १३। श्लो. ४)। ___ इस श्लोक के प्रथम चरण में 'सर्वत्र मैत्रीमुपकल्पय'...क्रियापद मध्यमपुरुष का प्रयोग हुआ है और चतुर्थ चरण में 'खिद्यते' क्रियापद प्रथमपुरुष का। इस विसंगति को मिटाने के लिए 'खिद्यसे' इस क्रियापद का निर्धारण किया गया।
५. प्रकल्प्य यन्नास्तिकतादिवादम्.... (गी. १५। श्लो. ५)।
इसके अगले चरण में 'परिशीलयन्तः' बहुवचन का प्रयोग हुआ है। यदि प्रकल्पयन् पाठ को माना जाए तो एकवचन का प्रयोग होता है
और यदि इसका नास्तिकता.... के साथ समास किया जाए तो अर्थ की संगति नहीं बैठती। अतः हमने प्रकल्पयन् के स्थान पर 'प्रकल्प्य यन्' पाठ को लिया है।
इस प्रकार कुछेक स्थानों पर पाठ परिवर्तन हुआ। युवाचार्यवर (आचार्यवर) व्यस्त होते हुए भी समय-समय पर मुझे अपना बहुमूल्य समय देते। उनके इस अनुग्रह और वत्सलता के प्रति मैं अपना जो कुछ भी समर्पित करूं, वह बहुत थोड़ा है। जिनका सतत सान्निध्य और अन्तःप्रेरणा मेरे मानस