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हजारों पुस्तकें भवन को प्रदान कर उसकी लाइब्रेरी को सुसमृद्ध बनाया। ग्रन्थमाला का प्रकाशन सम्बन्धी प्रबन्ध भवन को सौंप कर उसकी साहित्यिक जगत में विशिष्ट प्रतिष्ठा बढ़ाई।
सिंधी जैन ग्रन्थमाला में जितने ग्रन्थ प्रकाशित हुए, वे भारतीय साहित्य भंडार के अनमोल रत्न जैसे हैं। देश और विदेश के सभी प्राच्य-विद्या-अभिज्ञ विद्वानों ने मुक्त-कंठसे इनकी प्रशंसा की। भारत सरकार द्वारा नियुक्त संस्कृत भाषा आयोग ने इस ग्रन्थमाला को भारत की एक सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थमाला के रूप में प्रमाणित किया। इसी ग्रन्थमाला की गुणवत्ता को लक्ष्य कर जर्मन ओरिएंटल सोसायटी जैसी विश्व के प्राच्यविदों की श्रेष्ठतम संस्थाने हमको अपनी आनरेरी सदस्यता प्रदान कर हम जैसे एक अतिसामान्य विद्याभ्यासी को भी वह गौरव प्रदान किया जो आज तक भारत के किसी भी अन्य विद्वान को (केवल स्व. सर रामकृष्ण भांडारकर को छोड़कर) नहीं किया गया। यह गौरव हम अपना नहीं मानते अपितु सिंधी जैन ग्रन्थमाला का गौरव समझते हैं। हमको केवल इस बात से आत्मसंतोष होता है कि हम अपने क्षुद्र जीवन में इस प्रकार ग्रन्थमालास्वरूप छोटीसी नौका का आधार पाकर दुस्तर भवनदी को पार करने में प्रवृत्त हुए हैं।
ग्रन्थमाला के मूल संस्थापक और उनके पितृभक्त पुत्र भी चले गये। इसलिये ग्रन्थमाला अब एक प्रकार से निराधार दशाका अनुभव कर रही है। इसी तरह ग्रन्थमाला के एक हितेषी भारतीय विद्या भवन के कुलपति और हमारे प्रिय मित्र श्री कन्हैयालालजी मुंशी भी अपनी सारी स्थूल समृद्धि
और लीला-लक्ष्मी को छोड़कर वैकुंठ में वास करने चले गये। श्री मुंशीजी के विशेष आग्रह से ही हमने ग्रन्थमाला का कार्यप्रबन्ध भारतीय विद्या भवन को सौंपा है।
अब हमारा शरीर भी क्षीण हो चुका है और हम भी अब उसी मार्ग की ओर झांक रहे हैं जिस पर से ये अपने अन्यान्य साथी चले गये हैं।
ग्रन्थमाला के भविष्य में क्या लिखा है, वह हमें ज्ञात नहीं; पर हमारे द्वारा सम्पादित कुछ ग्रन्थ अभी अधूरे पड़े हैं। हम इनका उद्धार कर सकेंगे या नहीं, यह तो वही विधाता जाने जिसने प्रस्तुत ग्रन्थ को प्रकाश में लाने के लिये हमें यह अवसर दिया है। यदि वैसा थोड़ा सा भी और अवसर हमें मिल गया तो हम उन ग्रन्थों को भी यथातथा प्रकाश में रखने का प्रयत्न करना चाहते हैं।
ग्रन्थ के सम्पादक विद्वान के प्रति आभार प्रदर्शन
भाषाशास्त्र के अभिज्ञ विद्वान् डा. श्री प्रबोध पंडित ने कई प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर बहुत परिश्रमपूर्वक ग्रन्थ का शुद्ध वाचन तैयार करने का जो प्रयत्न किया है और उसके साथ भाषा-विश्लेषणात्मक प्रौढ़ निबन्ध संकलित कर एवं विशिष्ट शब्दों का व्युत्पत्ति-दर्शक शब्दकोष तैयार कर ग्रन्थ की उपयोगिता प्रदर्शित करने का जो श्रम उठाया है, उसके लिये मैं इनका हार्दिक अभिनंदन करता हूँ।
डॉ. प्रबोध मेरे एक अनन्य विद्वानमित्र पंडित श्री बेचरदासजी के सुपूत्र हैं। पंडित श्री बेचरदासजी का साहित्यिक सम्बन्ध मेरे साथ बहुत पुराना है। उतना ही पुराना जितना प्रस्तुत प्रकाश्यमान ग्रन्थ के साथ रहा है। सन् १९१९ में जब मैंने पूना में जैन साहित्य संशोधक नामक समिति की स्थापना की और उसके द्वारा 'जैन साहित्य संशोधक' नामक शोध-विषयक त्रैमासिक पत्र का प्रकाशन करना निश्चित किया तब उस कार्य में सहायक के रूप में श्री पंडित बेचरदासजी को मैंने अपने पास बुलाया था। तभी से उनका और हमारा पारस्परिक घनिष्ठ स्नेह सम्बन्ध चला आ रहा है। मैं जब पूना से अहमदाबाद में गुजरात पुरातत्त्व मंदिर का संचालन करने के लिये गया तो बाद में पंडितजी श्री बेचरदासजी को भी उस ज्ञान मंदिर में एक सुयोग्य अध्यापक तथा विद्वान
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