Book Title: Shadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan
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२०२ षडावश्यकबालावबोधवृत्ति
[$564-566 ). ८०९ 'सुहिएसु' य इत्यादि। सुषु अतिशय करी हितु ज्ञानादि त्रिकु जीहं रहइं हुयइ ति सुहित कहियई । तीहं नइ विषः । तथा 'दुहिए ये ति । दुखितेषु रोगि करी तपि करी वा जि क्लांत हुयई ति दुक्खित कहियइं । तीहं नइ विषइ । अथ श्रमवशइतउ मार्गि जि खिन्न हुयइं ति क्लांत दुक्खित कहियई तीहं नइ विषइ । तथा 'अस्संजएसु।'सं' किसउ अर्थ ? आपणइ छंदि स्वच्छा करी 5 विहारी इसा नहीं, किंतु गुरु तणी आण करी जि विहरई ति असंयत कहियइं। तीहं नइ विषइ । मई
अनुकंपा भक्ति कीधी 'रागेण वे' ति-रागि पुत्रादि प्रेमि करी न सुद्ध साधु बुद्धि करी। तथा 'दासेण वे' ति-द्वेषि करी द्वेषु ईहां साधुनिंदा स्वरूपु जाणिवउ। यथा--
___'अदत्तदाना मलाविलदेहा ज्ञातिजनपरित्यक्ता क्षुधार्ताः सर्वथा निर्गतका अमी अत उपष्टंभारे' इत्येवं निंदापूर्व ज अनुकंपा सापि निंदाहीः । अशुभदीर्घायुः कर्मबंधहेतुत्वात् । 10 5 64) यदागम :- तहारूवं समणं वा माहणं वा संजय विरय पडिहय पच्चक्खाय
पावकम्मं हीलित्ता निंदित्ता गरहित्ता' अवमन्नित्ता अमणुन्नेणं अपीइ-कारगेणं. असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाहित्ता असुहदीहा उज्झत्तयाए कम्मं पकरेइ ।
एह आलापक नउ अथु-तथारूपु साधुगुणजुक्त श्रमणु विविध कष्टानुष्ठाननिरतु'। माहणु-ब्रह्मचर्य सहितु । संजतु-जितेंद्रियु । विरतु नानाविध तपविषइ 'वि' विशेषि करी रतु विरतु कहियइ । प्रतिहत 15 प्रत्याख्यात पापकर्मा । किसउ अथु । प्रतिहतु स्थितिहासइतउ ग्रंथिभेदि करी। हेतु तणा अभावइतउ पुनर्वद्धि भावाभावइतउ प्रत्याख्यानु निराकरित्रं पापकर्म चारित्राचारादिक जिणि सु प्रतिहित प्रत्याख्यात पापकर्मा कहिइ । एवं गुणयुक्त महामुनि रहई हीला अवज्ञा स करी हीलित्ता' कहियइ। निंदा अदत्तदाना इत्यादि । तत्र, पूर्विहिं पहे दीधउं नहीं तिणि कारणि भिक्षाटनु करई भिक्षाजीविया।
इति अदत्तदाना तणउ अथु। 'मलाविलदेहा' इत्यादि सुगमं । नवरं 'सर्वथा निर्गतका' किसउ अर्थे ! 20 सर्वहीं प्रकारहं करी इहलोक सुख हूंता 'निर्गत' नीसरिया। इहलोकिहिं परलोकिाहं ईहं रहई सुखु नहीं इसंउ अर्थे । इसी परि परसाखि निंदी करी। इसी ही जि परि आपसाखि गरिही करी ‘गरहित्ता' तणउ अर्थे । 'अवममित्ता'। अभ्युत्थानादि विनय तणइ अभावि भिक्षाचर मात्र गणना करी जु दानु सु अवमान पूर्व 'अवमन्नित्ता । कहियइ । 'अमणुनेणं'। पर्युषित वल्लचणकादि अरस विरसाहारेणं । 'अपीइकारगेणं'। गुणराग तणइ अभावि करी असणादिकि करी ‘पडिलाहित्ता' विहरावी करी 25 शुभविपरीतु अशुभदुक्खहेतुकु दीर्घ गरूयउं आयुः कर्म दाता हूंतउ ‘पकरेइ ' किस अथु ? बांधइ।
3565) जिम द्रौपदी जीवि कुटुक तुंबकादिदानि करी कर्मु बांधउं तेह तणउं फलु नरकादिकहं भवहं प्रभुतु कालु वेई करी तउ छेहि तेह तणा अंसउदयवशइतउ दौर्भाग्यु वेइऊं।
3566) अथवा 'सुखितेषु दुक्खितेषु' किसउ अर्थे । सातगारवादि गारव सहित सुखित चरक परिव्राजकादिक । अथवा पार्श्वस्थादिक । अणास्तीक दुखित । ति कउणि ? असंयत षट्विध जीव30निकाय बधक । असाधु तीहं नइ विषइ ज मई अनुकंपा अशनादि दानलक्षण भक्ति कीधी तथा च अनुकंपा शब्द रहई भक्तिवाच्यता विषइ सिद्धांत गाथा।
आयरिय अणुकंपयाए गच्छो अणुकंपिङ महाभागो। गच्छणुकंपयाए अव्वुच्छित्ती कया तित्थे ।
[८०९] 'रागेण वा'-माहरा मित्र ए', नगरादि संबंधिया ए इसी परि, अथवा एहे अम्ह रहई सदा निमित्तोषधादिकु प्रयोजन इसी परि । दोसेण वा'- कुलिंगी नइ विषइ जिम धर्म निंदक ए तथा निषेधक ए इसी परि । पार्श्वस्थादिकहं विषइ ।
8564) 1 Bh. गरिहित्ता । 2 Bh.-निरितु । 3 Bh. omits. 4 Bb. कहियई। 8565) 1 Bb. omits - आदि - । 5566) 1 Bh. omits.
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