Book Title: Shadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan
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२२७
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[९०५]
621-623) ९०५-९०७]
श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत द्वे स्वर्णकुण्डधरयो करिणोरपि द्वे द्वे यक्षयोश्च पुरतो वरभूतयो· ॥ इत्थं शाश्वतचैत्यबिम्बपटलीरूपस्वरूपं मया सूत्रे साधुमतल्लिकाभिराभितः संकीर्तितं कीर्तितम् । येऽदः श्रद्दधते सदाभिदधते तेषां भवत्यंतिके तूर्णं श्रीतरुणप्रभाभिरुचितं श्रेयः परमुत्पुरम् ॥
[९०६] ॥ इति शाश्वत जिनबिंब स्वरूप निरूपकं स्तवनं समाप्तमिति ॥ 'मणिपीठे' ति आर्याद्वयं सुगमं ॥ नवरमत्र सर्व प्रतिमापरिकर स्वरूपु कहिलं छइ ॥३७॥ $622) अथ सर्व त्रैलोक्यगत प्रतिमाप्रमाणु कहियइ ॥
'कोटिशते ति । पनरहकोडसई बइतालीस कोडि अठावनलाख सत्तसठिसहस्स चियालीसे करी 10 अधिक त्रैलोक्य माहि प्रतिमा 'सम' समस्त 'नित्य' सदा भक्ति करी नमस्कर अनेराई जि के तीर्थ छई ति सगलाई नमस्करउ 'प्रमदात् ' अतिसमाधि संपन्न परमानंद वशइतउ ॥३९॥
'प्रातरि'ति-'प्रातः' प्रभात समइ प्रमोदइतउ समाधि महानंदइतउ 'पुलकांकित' रोमांचित छइ 'काययष्टि हर्ष रोमांकुरित तनुलता जेह तणी सु 'प्रातः प्रमोद पुलकांकित काययष्टि' पुरुष कहियइ । पुनरपि किसउ 'तोषानुवाहे ' ति- 'तोषानुवाह' कहियई हर्षास्नु जलप्रवाह तीहं करी15. 'विमलीकत' पवित्रीक्रत 'हट' विकसित 'दृष्टि' लोचनु जेह तणी तोषास्त्रवाह विमलीकृत दृष्ट दृष्टि कहियह । इस हतउं जु भव्यु जीव 'स्तोष्यते। स्ताविसिइ । कउण रहई ! इत्याह- 'सकल शाश्वततीर्थ राजस्तोम' समस्तशाश्वततीर्थकर बिंबकदंबु । सु जिनाधिराज तणी 'रमा' लक्ष्मी 'गमिष्यति' लहिसिइ ॥४०॥
' इत्थं स्तुते ति - ' इत्थं ' इणि प्रकार 'स्तुत ' संकीर्तित कियहं । 'श्रुते' ति - श्रुतु सिद्धांत तेह नइ विषइ समाहितु सावधानु, इणिहिं जि कारणि शांतु कषायोदय रहितु चित्तु मनु जीह तणउं हुयइ ति 'श्रुतसमाहितशांतचित्त'' कहियई । ति कउणि ? 'विद्याधरै गणधरैरि' ति - विद्याचारण जंघाचारणादिक महऋषि । तथा गणधर गच्छधारी श्रीगौतमादिक अथवा गीतार्थ विद्याधर धरणीधर । विद्याधर गणधर सूरिवर । तेहे न केवलं पुण कउणि? तेहे 'असुरैः सुरैश्चेति देवहं दानवहं स्तुत त्रैलोक्यशाश्वत जिनप्रतिमाः॥सुगम ॥ 'मह्य दिशंतु तरुणप्रभयादृशं स्वां'। 'तरुण' नवी छइ 'प्रभा'25 कांति, तिणि करी उपलक्षित 'स्व' आपणी दृष्टि 'मां' मू निमित्तु 'दिशंतु ' दियउं ॥४१॥
॥ इति शाश्वतचैत्यजिनबिमानस्तवनविवरणं समाप्तं ॥ 8623) अथ सर्वसाधु वंदननिमित्तु कहइ
जावंति केइ साहू भरहेरवए महाविदेहे य ।
सव्वेसु तेसु पणओ तिविहेण तिदंड विरयाणं ॥ [९०७ सुगमा ॥] 30
नवरं प्रथम संहनान उत्कृष्टपदि । पनरह कर्ममूमि, पांच भरत, पांच ऐरवत, पांच महाविदेह, लक्षण तीहं माहि नवकोडि केवलज्ञानि साधुसंपदा, नवकोडिसहस्स वर ज्ञानदर्शनचरणधर साधु संपदा । जघन्यपदि बिकोडि केवलज्ञानि साधुसंपदा, बिकडिसहस्स वरसाधुसंपदा कहियई।
कठणि after वह दानवह
8622) 1 Bh. सांतचित्त । 2 Bh. कउण as a correction over original कउणि । 3Mss. place पूण कउणि after देवहं दानवहं ।
$623) 1 Bh. omits वर।
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