Book Title: Shadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

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Page 290
________________ $603-605) ८४५-८४७] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत हुयइ तिमहिं जि जे किमइ कृतालोचनु हुयइ । तथा आपणी साखि निंदितु किसउ अर्थ ? ' हा दुटु कयं' इत्यादि प्रकारि करी कृतात्मनिंदनु हुयइ। तउ जिम 'ओहरिय भरुव्व भारवहो'। किसउ अर्यु ? 'भारवहु' भणियइ भार ऊपाडणहारु पुरुषु । 'ओहरियभरो' किसउ अर्बु ? मुक्तभारु हूंतउ ' होइ' हुयइ, किसउ हुयइ ! 'अइरेग लहुओ।' अति हलयउ हुयइ, तिम श्रावक पुण पापभार रहितु हूंतउ अतिरेकलघु। अति हलयउ तुंबक जिम ऊर्द्धगामी हुयइ । अत्र ‘मणूसो' ईहां मनुष्य ग्रहणु मनुष्यही जि रहई प्रति-5 क्रमण योग्यता जाणाविवा निमित्तु कधि । 8603) अथ षकटायारंभवंत ही श्रावक ही रहइं आवश्यकि करी मुक्ति हुयइ। इसा अर्थ प्रकटिवा कारणि कहइ आवस्सएण पएण सावओ जइ वि बहुरओ होइ। दुक्खाणमंतकिरियं काही अचिरेण कालेण ॥ [८४५] 10 श्रावकु गृही 'जइ वि बहुरओ होइ' जदपिहिं बहुपाप कर्मारंभु हुयइ । तथापिहिं 'सामाइयं चउवीसत्थो वंदणं पडिक्कमणं काउस्सग्गो पञ्चक्खाणं' इत्येवंरूपु जु छइ छविहु भावावश्यकु तिणि करी, न पुण दंत मुख क्षालनरूयु छइ द्रव्यावश्यकु तिणि करी 'दुक्खाणमंत किरियमिति। सारीर मानस लक्षण छइं दुक्ख कष्ट तीह नीं 'अंतकिरिया' विनासु। 'काही अचिरेण कालेणेति । अचिरि थोडइ कालि समइ करी करिसिइ । दुक्ख नी अंतकिरिया मुक्ति कहियई। तेह रहई अनंतर हेतु यथाख्यातु चारित्रु 15 परंपरा हेतु एउ आवश्यकु पुण हुयइ निम श्रेष्ठि सुदर्शन रहई हूयउं । 8604) अथ जि के वीसरिया छइं अतीचार तीहं रहइं पडिक्कमिवा निमित्तु कहइ आलोयणा बहुविहा नयसंभारिया पडिक्कमणकाले । मूलगुण उत्तरगुणे तं निंदे तं च गरिहामि ॥ [८४६] एक दिवस माहि अथवा रात्रि माहि जु जु वस्तु इंद्रिय मनोभिरामु अथवा अणभिरामु जी 20 देखइ सांभलइ अणुहवइ । तेह तेह वस्तु विषइ आर्तध्यानरौद्रध्यानवसु हूंतउ जेतला विकल्प कल्पइ तेतला वली वलता सांभरइं नहीं । अत आह आलोयणा बहुविहा । आलोचनीय गुरु आगइ प्रकाशनीय पापस्थान बहुविध प्रभूतप्रकार ति पुण मूलगुण पांच अणुव्रत उत्तरगुण त्रिन्हि गुणव्रत चत्तारि शिक्षाबत तीहं नइ विषइ पडिक्कमणकालि आलोचनादि निंदा गरिहावसरि सांभरी नहीं चित्ति आवी नहीं। चित्तशून्यतादि प्रमादवसइतउ 'तं 25 निंदे तं च गरिहामि' । पूर्ववत् । 86), एवं इसो परि प्रतिक्रमण कारकु आलोचना निंदा गरिहा करी धर्माराधना निमित्तु काइ करी अभ्युत्थतु हूतउ । 'तस्स धम्मस्स केवलि पन्नत्तस्स'. इसउं मन माहि करतउ हूंतउ भावमंगल ग । अब्भुदिओमि आराहणाए विरओ मि विराहणाए । 30 तिविहेण पडिकतो वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥ [८४७ ] केवलिप्रज्ञप्ता सर्वज्ञभाषित तेह धर्म, किसउ अर्थ ? श्रावकधर्म तणी आराधना पूर्णलाभु तेह निमित्तु 'अम्हि' हउं अम्युत्थितु उद्यमवंतु तेह तणी विराधना खंडना तेह हूंतउ विरतु निवर्सिउ । 'तिविहेण पडिक्कंतो' इति मन वचन काय लक्षण छइं त्रिन्हि 603 ) 1 Bb. omits. 2 Bh. चउवीसत्थओ। 3 Bh. वंदणयं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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