Book Title: Shadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

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Page 295
________________ २२० षडावश्यकबालावबोधवृत्ति [§615-616) शतसहस्र । संनिविष्ट विशिष्ट मत्त वारण छाजावलि मकरमुख सिंहमुख गजमुख वृषभमुख तुरगमुख मृगमुखादि रूपकवर्णकाभिराम' । सातकोडि बहत्तर लाख चैत्यशाश्वतां छई । ति सर्वइ त्रिद्वार मुखमंड पादिक सभोक्त स्थानक षट्क सहित छई ॥६ 'द्वात्रिंशदुच्चभावे' इति । तत्र असुरनिकाय माहि चैत्यप्रमाणु । यथा बत्रीस जोयण ऊंचपणि । 5 पंचास जोयण लांबपणि । पंचवीस जोयण पिहुलपणि ॥७ ' तन्नेमी'ति । तींहं असुरकुमार निकाय माहि' चैत्यहं तणउं नेमि अर्थु । . तेह समान ' तन्नेमि प्रमित' कहियई । 'नागादिषु नवसु ' इति ॥ नागकुमार १, विद्युत्कुमार २, सुवर्णकुमार ३, अग्निकुमार ४, वायुकुमार ५, स्तनितकुमार ६, उदधिकुमार ७, द्वीपकुमार ८, दिशाकुमार ९, नामक छई नव भवनपति निकाय तीहं माहि 'तन्नेमि प्रमित' 10 छ । किसउं अर्थु ? सोल जोयण ऊंचपणि 'तानि भणितानी' ति ति चैत्य भणियां तीर्थकर गणधरहं कहियां ॥ तथा पंचवीस जोयण लांबपणि, सार्द्ध द्वादश जोयण पिहुलपणि छई । तीहं सवहीं माहि अट्टोत्तरुस अट्ठोत्तरुसउ जिनप्रतिमा छई ॥८॥ ' षष्टिः सभासु पंचसु ' इति । पूर्वोक्त जि छई पांच पांच सभा तीहं तणां द्वारहं त्रिन्हि त्रिन्हि जि छइं स्तूप तिहां छईं द्वादश द्वादश प्रतिमा । बार पंचउं साठि ति साठि प्रतिमा । अनइ वीसउं सउ 15 बिंब जिनभवन माहि । यथा अत्तरु गभारा माहि, बारह बिंब स्तूप त्रय तणां सर्वइ मिलीयां वीसउंसउ । अनइ साठि सभा तणां इसी परि भवनि भवनि प्रतिमा तणउं असीसउ वांदउं ॥ ९ ॥ अथ भवनपतिबिंब प्रमाणु कहियइ ‘त्र्यधिकानि च दशकोटी शतानी 'ति । त्रिहुं करी अधिकदश कोडि सई' । किसउ अर्थु ! तेरह 20 कोडिसइं, इगुणनवइ कोडि, साठि लाख बिंब, सर्व भवनगत छई ॥ १०॥ (615) अथ व्यंतर नगरगत चैत्यमानु कहियई । नव जोयण ऊंचपाणि, सार्द्धद्वादश जोयण लांबपणि, छ जोयण एकु गाऊ पिहुलपाणि, व्यंतर नगरहं माहि चैत्य छई ॥११॥ ' त्रिमुखानी ' ति सुगमा ॥ १२ ॥ ‘ज्योतिष्केष्वि'ति । ज्योतिर्निकाय माहि, 'विसंख्य' किसउ अर्थ ? असंख्यात जिनालय छई ति 25 पुण त्रिदशमाला देवनिकाय तेहे 'महित' पूजित छ । 'तेष्वप्यसंख्य संख्या' इति । 'अपि' शब्द समुच्च आर्थि । न केवलं व्यंतरगत असंख्यात छई तीहं माहि असीसय असीसय जिनप्रतिमा भावि करी जिनप्रेतिमा पुण असंख्यात संख्यावंतहं महाबुद्धिमंतहं पंडितहं 'स्तुताः' किसउ अर्थ ! कथिताः ॥१३॥ (616) अथ पृथिवीस्थिती चैत्य वांदियई । 'दशकल्पे 'ति । 'द्विर्दशे 'ति । 'नंदीश्वरे' ति सौधर्मेंद्र १, ईशानेंद्र २, सनत्कुमारेंद्र ३, माहेंद्र ४, ब्रोंद्र ५, लांतकेंद्र ६, महाशुकेंद्र ७, सहस्रारेंद्र ८, 30 प्राणतेंद्र ९, अच्युतेंद्र १०, इसां नामहं छई दशकल्प निवासीद्रं दश देवलोक तथा दश इंद्र । तीहं दशहीं इंद्र तणा चत्तारि चत्तारि लोकपाल सुरदेहच कई चियालीस लोकपाल देव । तथा ' शक्रेशान महिष्य' इति । सौधर्मेंद्र ईशानेंद्र तणी आठ आठ अग्रमहिषी । आठ दूणउं सोल तीहं इंद्रादिकहं तणी यथासंख्य दश चियालीस सोलस संख्यात छई राजधानी ति पुण सर्व संख्या करी छासट्टि छ तीहं माहि । १४ ॥ 'द्विदश' बि वार दस, वीससंख्य भवनपतींद्र चमरेंद्र १, बलींद्र २, धरणेंद्र ३, भूतानंदेंद्र ४, वेदेवेंद्र ५, वेणुदालींद्र ६, हरिकांतेंद्र ७, हरिस्सहेंद्र ८, अग्निशेषेंद्र' ९, अग्निमाणवेंद्र १०, पूर्णेद्र ११. 35 8614) 1 B. - रूपवर्णक-1 2 B. omits. 3 B. Bh. - शई। 8616) 1 Bh. omits 2 Bh. अग्निशिषेंद्र | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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