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किया। गुरुदेव की महती इच्छा को लक्ष्यकर स्व. बाबू श्री बहादुरसिंहजी ने वहाँ पर हमारी प्रेरणा से सिंधी जैन ज्ञानपीठ नाम से जैन शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन हेतु शिक्षापीठ (जैन चेयर) स्थापित किया। उसीके अन्तर्गत जैन ग्रन्थों के प्रकाशन निमित्त प्रस्तुत सिंधी जैन ग्रन्थमाला का प्रकाशनकार्य भी हमने शुरू किया। बम्बई के प्रख्यात निर्णयसागर प्रेस में ग्रन्थों के मुद्रण की व्यवस्था की। एक साथ अनेकानेक ग्रन्थों का संशोधन, सम्पादन एवं मुद्रणकार्य चालू किया गया। अहमदाबाद में गुजरात पुरातत्त्व मंदिर द्वारा प्रकाशित करने के लिये जिन ग्रन्थों को हमने प्राथमिकता दे रखी थी, उन्हीं ग्रन्थों में से कुछ को हमने सर्वप्रथम छपवाना शुरू किया। ग्रन्थमाला का पहला ग्रन्थ 'प्रबन्ध चिन्तामणि' प्रसिद्ध हुआ। बाद के 'प्रबन्ध कोष', 'विविध तीर्थ कल्प' आदि ३-४ ग्रन्थ भी उसी स्थान के नाम से प्रकाशित हुए। इन ग्रन्थों का प्रकाशन देखकर गुरुदेव भी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना शुभाशीर्वाद भी, स्वहस्ताक्षरों से अंकित, हमें प्रदान किया।
कोई ३ वर्ष बाद स्वास्थ्य एवं कार्य की सुविधा की दृष्टि से ग्रन्थमाला का कार्यालय अहमदाबाद लाया गया और वहाँ पर 'अनेकान्त विहार' नामक अपना निजीस्थान बनाकर वहीं से हमने 'भानुचन्द्र चरित्र', 'ज्ञानबिन्दु प्रकरणादि' ग्रन्थों का सम्पादन एवं प्रकाशन कार्य किया। सन् १९४० में स्वर्गीय श्री कन्हैयालाल माणिक्यलाल मुंशी के सप्रयत्न से बम्बई में भारतीय विद्या भवन की स्थापना हुई और उनका स्नेह एवं सौहार्दभरा आमंत्रण पाकर मैंने उनकी प्रवृत्ति में अपना यथायोग्य सहयोग देना स्वीकार किया। बाद में सिंधी जैन ग्रन्थमाला के प्रकाशन सम्बन्धी व्यवस्था का प्रबन्ध भी भारतीय विद्या भवन के अधीन कर देना मैने निश्चित किया। इस निश्चय में ग्रंथमाला के संस्थापक एवं सर्वथा संरक्षक स्व. श्रीमान बाबू बहादुरसिंहजी सिंधी तथा मित्रप्रवर श्रीमान डॉ. पंडित श्री सुखलालजी संघवी की पूर्ण सहमति प्राप्त हुई। पंडित श्री सुखलालजी इस ग्रन्थमाला के जन्मकाल से ही अन्तरंग सहायक और सत्परामर्शदायक बने हुए हैं तथा कई ग्रन्थरत्नों का इन्होंने स्वयं भी सम्पादनकार्य किया है।
स्व. बाबू श्री बहादुरसिंहजी का ग्रन्थमाला के विषय में अत्यन्त अनुराग एवं उत्साह था। उनकी इच्छा थी कि इस ग्रन्थमाला के कम से कम १०८ ग्रन्थ प्रकाशित होने चाहिये और इसके लिये जितना धन खर्च किया जाय वह करने को वे उत्सुक थे। उनकी ऐसी उत्कट ज्ञानप्रकाशन की भावना को लक्ष कर मैंने भी यथाशक्य एक साथ अनेकानेक ग्रन्थों के सम्पादन एवं प्रकाशन की व्यवस्था करने का प्रयत्न किया; परन्तु दुर्भाग्य से सन् १९४४ में उनका स्वर्गवास हो गया और उसके कारण मेरा मानसिक उत्साह भी कुछ शिथिल बन गया; परन्तु श्री सिंधीजी के सत् पुत्र स्व. बाबू राजेन्द्रसिंह सिंधी तथा स्व. बाबू श्री नरेन्द्रसिंहजी सिंधी ने अपने पूजनीय पिता की भावना को पूर्ण करने की इच्छा से हमसे ग्रन्थमाला के सम्पादन एवं प्रकाशन कार्य को यथावत् चालू रखने के लिये सद्भावपूर्ण सहयोग देने की अपनी मनोकामना प्रकट की। हमने उनकी इच्छानुसार ग्रन्थमाला का कार्य उसी तरह चालू रखा, जिस तरह स्व. बाबू बहादुरसिंहजी की प्रेरणा से कर रहे थे। सिंधीजी की मृत्यु के बाद भी प्रायः २० वर्ष तक ग्रन्थमाला का कार्य हम उसी तरह करते रहे और उसके कारण अनेकानेक महत्व के ग्रन्थ प्रकाश में आये।
दैवकी दुविलासता के कारण पिछले ५, ६ वर्षों में बाबू श्री बहादुरसिंहजी के उक्त दोनों सत्पुत्रों का भी देहावसान हो गया।
जैसा कि ऊपर सूचित किया है, इस ग्रन्थ माला का प्रारंभ सन् १९३१ में हुआ। ४२, ४३ वर्ष के इसके जीवनकाल के दर्मियान इसके द्वारा छोटे-बड़े कोई साठ से अधिक ग्रन्थ प्रकाश में आये। इसके लिये स्व. सिंधीजी ने और उनके बाद उनके सत्पुत्र बाबू श्री राजेन्द्रसिंहजी और श्री नरेन्द्रसिंहजी ने हजारों रुपये खर्च कर ग्रन्थमाला का सर्व प्रकार संपोषण किया। हमारे निमित्त भारतीय विद्या भवन को भी हजारों रुपये की आर्थिक सहायता प्रदान की। लाखों की कीमत की बड़ी मूल्यवान
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