Book Title: Shadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

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Page 260
________________ 8522-23 ). ७६७-७६८ ] श्री तरुणप्रभाचार्यकृत ૮૧ रोगमुक्त महासेनु देखी करी लोकु सहर्षु हूयउ । ति पुण सुरसेन महासन वे सहोदर धर्मविषइ अति सादर हूया" । श्रीभद्रबाहु नामि श्रीमदाचार्यमिश्र एक वार तिहां समोसरिया । अवधिज्ञान बलि करी ति महात्मा अनेक भविक लोकहं तणा संदेह ऊतारई । सुरसेन महासेन वांदिवा आविया । त्रिन्ही प्रदक्षिणा देकरी वांदी करी धर्मदेशनामृत पानु करई । देशनावसानि" सुरसेोन" महासेन जीभ रोग कारण पूछिउ । (522) मुनि भइ “ मणिपुरु नामि पुरु तिहां जिनधर्माधिवासितु मदनु इसई नामि सुभदु' एकु हूं | तेह तणा धीर वीर इसां नामहं प्रसिद्ध बि पुत्र हूंता । जिनवचनामृतपान व्यसनभावइतर मिथ्यात्वविष मूर्च्छागोचर न' हूयाई । कदाकालिहिं ति उद्यानवाने गया । वसंताभिधान मुनिप्रधान निज मातुल मुनि भूमिपतितु तेहे तिहां दीठउ । " किसउं हूयउं ? किसउं हूयउ !" इसी परि आकुल धीरि पूछतइ' हूंतई, पुरुष एक तिहां वर्त्तमानु कहइ । “प्रतिमा वर्त्तमान मुनि रहई' देखी करी दुष्ट भुजंगम एकु मुनि रह उसी करी बिलि पइटउ, जिम चोरू चोरी करी दुर्गि पइ सइ । " तदाकालि मातुलमोहवशइतर 10 वीरु कहइ । " रे शंकउ ! सु सापु नासतउ' तुम्हे मारिउ कांई नही ? " धीरू तेह आगइ कहइ" " सर्वि जीवrs as आ महापुरुष किसाई कारणि जीभ करी पापु बांधइ ? " कोप लगी वीरु वली कह " जिणी महामुनि डसिउ तिणि मारिएई" धर्मू जू हुयइ, किसी परि पापु हुयइ ! क्षत्रिय तणउ धर्मु एहू' जुजु 2 दुष्ट निग्रहि शिष्ठु पालिया । इसउं किमइ असत्यु वचनु त मू रहई जिह्वापातकु आवउ ।" धीरु तेह नउं वाक्यु चीतवतउ हूंतउ अपारकुपारससागरु मणिमंत्रौषधि बलि करी मुनि रहई जीवाडइ | 15 मुनींद्र जीवन सुभट रहईं अतिवल्लभ हुया । धीर वीर बे सुत सर्वजनस्तुत सुभु धर्मु पालता पातकु प्रज्वालता कीर्ति करी आपणपउं ऊजालता सुचिरु कालु नांदिया । धीरु पूर्णायु हूंतउ, सुरसेन ! तउं हूयउ । अनालोचित ताग्वचन पापकर्मा वीरु ताहरउ भाई महासेनु हूयउ । सर्व वैद्यहं रहई असाध्य सपघात वचन पापइत तेह रहई जिह्वा रोगु हूयउ" । भवांतर जु त यति जीवाडिउ तेह नइ प्रभावि तू रहईं रोगभंग लब्धि हूई । तिणि कारणि नमस्काराभिमंत्रितजलि करी तई भाई जीवाडिउ रोगु नसाडिउ | "20 इस पूर्व भवु सांभली करी बिहुं रहई जातितमरणु ऊपनउं । बिहुं व्रतु लीधरं । तीव्र तपश्चरणु की उं तिणिहिं जि" भवि केवलज्ञानु ऊपाडी" करी मुक्ति पहुता । अनर्थदण्डस्य फलं दुरंतं श्रुत्वा महासेननरस्य भव्याः । शिवं निवृत्तेः सुरसेनपुंसस्तं वर्जयध्वं कुशलं लभध्वम् ॥ ॥ अनर्थदंड विरतिव्रत" विषइ वीरजीव महासेनकथा समाप्ता ॥ प्रतिपक्षे सुपक्षे सुरसेनकथा ॥ (523) अथ चत्तारि शिक्षाव्रत । तत्र प्रथम सामायिक व्रतु । सु पूर्विहिं सामायिकग्रहण समइ वखाणिउं । सामायिक व्रत तणा छई अतीचार तीहं तणा प्रतिक्रमण करवा निमित्त भणइ । तिविहे दुष्पणिहाणे अणवट्ठाणे तहा सइ विहूणे । सामाइए वितक पढमे सिक्खाबए निंदे || [ ७६८] त्रिवि दुःप्रणिधानु जिणि सामायिकु कीधउं हुयइ तेह रहई मनि करी गृहव्यापारचिंतनु मनोप्रणिधान १, । वचने करी सावद्य कर्कश भाषादिक वाग् दुःप्रणिधानु २, अप्रतिलेखिति दुःप्रतिलेखिति अनिरीक्षिति दुर्निरीक्षिति स्थानकि स्थानासनादि विधानु कायदुःप्रणिधानु ३. अनवस्थानु सामाइय 521 ) 16 Bh. हुआ । 17. P. देखना । - 522 ) 1 P. सुभद्रु । 2 P. इसइ। 3 P. omits. 4 P. कहा- 15 7. P. omits. 8 Bh P. सापु 9 P. नासतउ | 10 B. omits. 13 Bh. 14 B. drops the whole sentence. 18 Bh. सपक्षे 15 P. omits. 523) 1 B. omits. प. बा. २४ Jain Education International [ ७६७] For Private & Personal Use Only Bh. does not 1P मारिई । 16 P. ऊपार्जी। repeat. 6. P. पूछित । 12 Bh. P. omit. 17 P. omits व्रत । 25 30 www.jainelibrary.org

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