________________
xxix
पाकर मैंने किसी तरह अब यह संचालकीय वक्तव्य लिखकर ग्रन्थ के प्रकाशन की व्यवस्था का प्रयत्न किया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में इस प्रकार अत्यधिक विलंब होने के कारण में हम विधि के किसी अज्ञात संकेत ही को निमित्त समझते हैं। ऊपर दिये गये पूर्व इतिहास से ज्ञात होगा कि सन् १९१८-१९ में हमें इस ग्रन्थ का सर्वप्रथम परिचय हुआ और तभी से हमको इसको प्रकाशित कर देने का मनोरथ उत्पन्न हुआ। हमारे जीवन की साहित्योपासना का वह प्रारंभ काल था, उसी समय हमको उद्योतन सूरिकी प्राकृत भाषा की महाकथा 'कुवलयमाला' का प्रकाशन करने की भी अभिलाषा उत्पन्न हुई। इन दोनों अभिलाषाओं को साथ लेकर हम अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ में आये और वहाँ पर पुरातत्त्व मंदिर के द्वारा इन दोनों ग्रन्थों के प्रकाशन का आयोजन करते रहे तथा प्रेस में छपने के योग्य प्रेस-कॉपियाँ भी तैयार करवाई। इनमें से कुवलयमाला' का तो सिंधी जैन ग्रन्थमाला के ४५-४६ ग्रंथांक के रूप में भारत के सुप्रसिद्ध प्राच्यविद्या विशारद और हमारे एक परम मित्र डा.ए.एन. उपाध्ये द्वारा सुसंपादित करवा कर हमने इतः पूर्व प्रकाशित कर दी। इसके प्रथम भाग के प्रारंभ में हमने किचित् प्रास्ताविक वक्तव्य के रूपमें कुवलयमाला कथा के प्रकाशन का पूर्व इतिहास नाम का जो निबन्ध लिखा है उसमें उक्त कथा के प्रकाशन सम्बन्धी हमारे मनोरथ की सारी बातें लिख दी हैं। उक्त कथा के प्रकाशन की कहानी भी ठीक प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन की कहानी जैसी ही है। 'कुवलयमाला' का मुद्रणकार्य सन् १९५० में प्रारंभ हुआ और उसका प्रथम भाग मूल ग्रन्थरूप सन् १९५६ में तथा दूसरा भाग, सन् १९६९ में मुद्रित होकर प्रकाशित हुआ।
गुजरात पुरातत्त्व मंदिर (अहमदाबाद) में ही बैठकर हमने 'प्रबन्ध चिन्तामणि' ग्रन्थका सम्पादन व मुद्रण चालू कर दिया था और तभी उसके साथ प्रस्तुत बालावबोध को भी प्रेस में दे देना चाहा था परन्तु उपर्युक्त कथनानुसार विदेश में चले जाने के कारण यह काम रुक गया। 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के कोई ४०-५० पृष्ठ छप चुके थे; पर उसका भी काम उसी कारण से आगे न चल सका। पर फिर जब शांति निकेतन में जाकर सिंधी जैन ग्रन्थ माला का सन् १९३१ में कार्यारंभ किया तो उसके सर्वप्रथम मणि के रूप में हमने उस 'प्रबन्ध चिन्तामणि' को पुनः निर्णयसागर प्रेस में सुन्दर रूप से छपवाने को दे दिया और १९३३ में वह ग्रन्थमाला का प्रथम ग्रन्य स्वरूप प्रकाशित हो गया। उस ग्रन्थ की भूमिका में हमने उसकी भी कुछ प्रकाशनकथा लिखी है। इस प्रकार जिस गुजरात पुरातत्त्व मंदिर के माध्यम से हमने इन ग्रन्थों का प्रकाशनकार्य सोचा था, उसमें से 'प्रबन्ध चिन्तामणि' सिंधी जैन माला में सर्व प्रथम स्थान प्राप्त कर यथाशक्य शीघ्र ही प्रकाश में आ गया और उसके पश्चात ग्रन्थमाला में अन्यान्य कई छोटे-बड़े ग्रन्थ प्रकाशित होते रहे । सन् १९५० तक के २० वर्षों में कोई ४०-४५ जितने ग्रन्थ प्रकाश में आ गये, परन्तु वह कुवलयमाला महाकथा ग्रन्थ जिसको प्रकाश में लाने के लिये हम सन् १९१८ से ही अत्यधिक लालायित थे सन् १९५० में प्रेस में दिया जा सका और कोई बीस वर्ष बाद सन् १९७० में पूर्ण होकर प्रसिद्धि पा सका।
उसीका साथी यह षडावश्यक बालावबोध जिसका मुद्रणकार्य हमने सन् १९५६ में चाल कराया था अब कोई १६-१७ वर्षों के बाद प्रकाश में आनेका अवसर प्राप्त कर रहा है। हमें यह अनुभव कर संतोष हो रहा है कि जिस एक मनोरथ को जीवन के कोई ५५ वर्ष जितने दीर्घकाल तक हम अपने मन में लपेटे फिरते रहे और न जाने कहाँ कहाँ हम जिसको अपने अनेक विद्वानों के सम्मुख प्रकट करते रहे, वह अर्द्धमूच्छित मनोरथ आज इस प्रकार सफल होने का दिन देख रहा है।
सिंघी जैन ग्रंथमाला के जीवन का संक्षिप्त सिंहावलोकन इस ग्रंथमाला का शुभारंभ हमने सन् १९३१ में गुरुदेव कवीन्द्र श्री रविन्द्रनाथ ठाकुर के विश्वकल्याणकारी सानिध्य में शांति निकेतन स्थित विश्वविख्यात विश्वभारती-विद्यापीठ में बैठ कर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org