Book Title: Shadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

Previous | Next

Page 241
________________ 5 पडावश्यक चालावबोधवृत्ति [8478-181 ) ६३७ माणिक्यादिकु ४ | धान्यु व्रीहि-गोधूमयवादिकु अनेक विधु । ईहं धनधान्य बिहुँ नइ अतिक्रमि अतीचारु १ तत्र धनधान्य रहईं प्रमाणप्राप्ति हूंती अधिक लाभ भावि हूंतइ जेतलइ आगिलउं वेचइ तेतलइ संचकारा दि दानि करी धनधान्य आपणां करी बीजा नइ घरि अथवा क्षेत्रि खलइ मूटकादिकि बंधावी राहवइ । आगिलइ वीकि हूंत आपणइ घरि आगइ । इसीपरि धनधान्यातिक्रम रूप प्रथम अतीचारु । 15 १६६ (478) क्षेत्र सेतुकेतुकृतसीमु भूखंडविशेषु । वास्तु खातु सरोवर वापी कूपादिकु । उच्छ्रितु गृह हट्ट भांडशालादिकु । तउ पाछइ सेतु पालि कहिया । केतु स्तंभादिकु कहीयइ । सु सेतु ऊतारी करी केतु ऊतारी करी बिहुँ क्षेत्रहं तणइ थानकि एक क्षेत्र तणउं करणु' । अंतरभित्ति ऊतारी करी बिहुं घर अथवा बिहुँ हाट थानकि एक घर तणउं एक हाट तणउं करवणु जु कीजइ सु क्षेत्र वास्तु अतिक्रमलक्षणु बीजउ अतीचारु २ । 10 रूप्यु-रजतु सुवर्णु कनकु तीहं तणइ प्रमाणि आगइ पूगइ हूंतइ भार्यादि निमित्ति । भूषणमिषां तर करी अवधि सीम दानि हूंतइ । रूप्य सुवर्णातिक्रम लक्षणु त्रीजउ अतीचारु ३ | (479) 'दुपए चउप्पयंमी 'ति - द्विपदादि दास्य दास्यादिकु । चतुष्पदु गो महिषी वृषभ करभ तुरंगमादिकु । द्विपद चतुष्पदावधि पूरण निमित्तु पाछेरउं गर्भग्रहण करावइ । तिथि करी द्विपद चतुष्पद'मानातिक्रमु पांचमउ अतीचारु ५। ' पडिक्कमे देसियं सव्वं ' पूर्ववत् । (480) परिग्रह परिमाण करण विषइ विद्यापति महीपति कथा लिखियइ । कुपितु - थाल कञ्चोलकादिकु तीहं नउं लाभनिमित्तु स्थूलता कारावणु कुपितातिक्रमलक्षणु चउथउ अतीचारु ४ । 20 [ ६३७] पोतनपुरि नगरि धनद जिम धनपति विद्यापति इसइ नामि श्रेष्ठि अति विख्यातु हूयउ । तेह नइ शृंगारसुंदरी इसइ नामि श्रेोष्ठिनी, रूपि करी जिसी सुरसुंदरी हुयइ तिसी । ति बे जिनभक्त अनंतफल लाभवांछा करी सप्तक्षेत्रीतलि' धनबीजु वावतां हूंतां यथाकामु वृषपोषणु करई । धनु उपार्जतां' जिनधर्मु विधिवत् करतां सुखमय हर्षमय विस्मयमय समय नीगमतां हूंतां तीहं रहईं अनेरइ दिवसि रात्रि सम स्वप्न माहि विद्यापति रहई का एक स्त्री कहइ, " हउं ताहरा घर नी लक्ष्मी एतला दिवस ताहराइ पुण्य गुणि करी बाधी हूंती तू रहई वश' हूंती । हव' हउं दैवि मोकली तिणि कारणि आज हूंती दसमइ दिवसि 'ताहरा घर हूंती जाइसु" । इसउं दुभवु यचनु तेह नउं विद्यापति सांभली करी जागिउ । ' दरिनु ह होइसिउ'' इसीपरि चिंतावस्थ हूयउ । प्रभातसमइ शृंगारसुंदरी विद्यापति चिंतापतितु देखी' भणइ । "कांत ! रविबिंब जिम तुम्हारइ मुखि मालिन्यु अदृष्टपूर्वकु किस कारणि आजु दीसइ ? " 25 परिग्रहप्रमाणाख्यव्रतकल्पद्रुरद्भुतः । निषिध्यमानमप्यर्थं दद्याद्विद्यापतेरिव ॥ (481) स्वप्न स्वरूप विद्यापति भणिइ हूंतइ पुनरपि शृंगारसुंदरी भाइ, “ निर्वाणनगर30 प्रदेश' निषेधार्गला लक्ष्मी संतहं रहई हृदयशल्यतुल्य जइ जाइ तउ जाउ । विवेकु एकु सर्वसमीहित' संपादकु तुम्ह कन्हा म जाइजिउ । तथा धन तणउं फलु सुपात्रदानु तुम्हे भव्य परि' एतला दिवस सीम लीधरं । मोक्षमार्ग भंगविषइ बाडि ए लक्ष्मी जइ भाग्यवश भागी तर ताहरी पुण्यवृत्ति जागी । तिणिकारणि हर्षस्थान किसइ कारणि विषादु करउ ? किसीपरि ए लक्ष्मी दसमइ दिवसि जाइसिइ । आत्मा यत्त हूंती आजू जु सप्तक्षेत्री माह वावउ । परिग्रह परिमाणु व्रतु करउ । असुभकाल तणउं हरणु करउं "। 8478) 1 Bh. केतु ऊतारी करी बिहुँ हाट थानकि एक घर तगडे करणु । 2 Mss. कारापणु । $ 480 ) 1 P. तालि । 2 P. ऊपार्जतां । 3 Bh. P. पुण्य - 1 4 Bh. वशि । a later correction over वश । 5 P. हिव । 6 Bh. होइसु । 7 Bh. adds करी । $ 481) 1 Bh. -प्रदेशि । P. प्रदेसि । 2 P. सामी हित । 3 P - पदि । 4 P. हषि - 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372