Book Title: Shadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Author(s): Prabodh Bechardas Pandit
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan
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8427-430). ५८१] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत
१४५ महात्मा तुम्ह रहई जीवितव्य दाता मातापिता समानु । एह महात्मा तणी भलिपरि सेव करिजिउ । इसउं भणी करी गरुडेंदु आपणइ थानकि पहुतउ।
8427) तुम्हे पुणि ज्ञाततत्त्व तेह मुनि कन्हह संजमु ले करी दुष्कर तप नियमपर हूया। तुम्ह माह ज्येषु मरी करी प्रथमि देवलोकि विद्युत्प्रभाभिधानु देवु हुयउ। तउं लहुडउ विद्युत्सुंदरु नामि तिहां जि देवु हूयउ । तिहां हुंतउ वडउ भाई चवी करी विजयवती नगरी माहि मदनदत्तु नामि नरव, राजेंद्र नउ मित्तु वाणिया नउ पुत्तु हूयउ । सु पुणि इउ धनकारणि फिरतउहिवडा तई दीठउं । तिणि कारणि पूर्वभवाभ्यास वसइतउ तू रहई एह विषइ स्नेहातिसउ। इस सांभली करी तिणि देवि एउ एकावली हारु मू रहई दीधउ । महात्मा पूछि उ 'मूं रहई निद्रादिक अपलक्षण किसइ कारणि?' महात्मा कहिउँ, 'तू रहई मरणु दूकडउं वर्त्त' । तिणि भणिउं,' 'किहां मूं रहई उत्पत्ति किती परि बोधिलाभु ? महात्मा भणिउं, 'तउं नरवर्मु राजेंद्र तणउं पुबु हरिदत्तु नामि होइसि । एउ' एकावलीहारु देखी 10 प्रतिबूझिसि ।' इसी परि छिन्नसंशय हूंतउ सूरी नमी करी गयउ।।
8428) तउ मई गुरु पूछिउ । 'भगवन् एउ हारु किसउ ? ' सूरि भणिउं, 'पूर्वािहं नवोत्पत्रु अमरेंदु इंद्रस्थानि गयउ । इंद्रि हाकिउ नाठउ ।' अधोमुख नासता हूंता एउ हारु गला हूंतउ ईहां हूंतउ असंख्यातमह द्वीपि पडिउ । इणि देवि लाधउ।' इसउं सांभली गुरु वांदी पंचवीस वरिस सीन देसांतरित परिभ्रमी धनुप्रभूतु उपार्जी करी हउं हवडां' स्वामिन् ! आविउ । स्वामिन् ! सुदेवु तुम्हारउ पुत्तु हूयउ कि नहीं।' राजोंद कहिउं, 'मित्र! हरिदत्त रहई हारु दिखालउ ।' हरिदत्तु तेडी हारु दिखालिउ।हार दर्शनइतउ तेह रहई आतिसमरणु ऊपनउं । राजद्रि पूछिइ हूंतह हारदात्त कुमारि निम हिं जि पूर्वभवसंबंधु कहिउ जिस पूर्विहिं मदनदत्ति कहिउ । राजा चित्त माहि चीतवइ 'जु आगइ धर्मविषइ विवादु एयउ सु विवादु एह पुत्र नइ चरित्रि करी उच्छेदिउ । एह विश्व माहि धर्म जिनप्रणीतू जु' छइ भव्य रहइं भवभयछेदकु मोक्षसुखदायकु।'
8429) एतलइ प्रस्तावि उद्यानपालकि राजेंदु बीनविउ, 'देव! आजु पुष्पावतंसकि उद्यानि बहुशिष्य परिवृतु चतुर्ज्ञानी सुरासुर-नरेश्वर-नमस्कृतु श्री गुणधरू नानि सुगुरु समोलरिउ छइ'। जिम मेघ तणउं गर्जितु सांभली करी मयूरु नाचइ तिम तेह नउं वचन सांभली करी हस्तिस्कंध समारूढ पुत्र-मित्रादि परिवारि-परिवतु महांत ऋद्धिसमुदय करी गुरुपाद यादिवा राउ पुहुत।" विधिवत् वांदी करी यथास्थानि बइठउ । अमृतरस सारणि समान धर्मदेशना सांभलइ।
25 यथा-'भो भव्या ! सर्वधर्ममूल शिवपुरद्वारु सम्यक्त्वु वर्तइ । सु सम्यक्त्वु देव गुरु धर्म विषद देव गुरु धर्म बुद्धिस्वरूपु कहियइ । अदेव अगुरु अधर्म विषइ देव गुरु धर्म बुद्धि स्वरूपु सम्यक्त्व विपरीतु मिथ्यात्वु कहियइ । तत्र जित-राग-द्वेष-मोहु देवु जिनु महाव्रत-धरु गुरु । दयामूलु धर्मु इति । इणि सम्यक्त्वि लाधइ नरकगति तिर्यचगति गमनु न हुयई । मनुष्य-देव-साक्ष-सुख जीव रहई स्वाधीन हुयई । तथा च भणितंसम्मत्तंमि उ लद्धे ठइयाइं नरयतिरियदाराई। .
30 दिव्वाणि माणुसाणि य मुक्खसुहाई सहीणाई॥
[५८१] 8430) इस सांभली करी राजा पुत्र सहितु सम्यक्त्व पूर्व गृहिधर्मु ले करी संतुष्ट हूतउं आपणइ घरि गयउ । अनेरइ दिवसि सुधर्मा सभा माहि बइठउ सौधर्मेंदु नरवर्म राजेंद तणउं सम्यक्त्वु देवहीं रहई
20
8427)1. Bh.-वर्म । 2. Bh. adis हूंतउं। 3. P. रई। 4. Bh पु (पुणि or प-) भणिउं । 5. P. omits 6. Bh.-वर्म । 7. Bh. had होइसिइ, but final -s is cancelled P. होइसिइ । 8. P. omits.
8428)1. Bh. पूच्छिउ। 2. Bh. हवडां हां। 3. P. omits. 4. P.-स्मरणु। 5. Bh. मन। 6. P. एकु । ( in B. जु appears like एकु).
5429)1. P. गुणधरु। 2. Bh. परिवार। 3. P. पहुतउ । ष. बा. १९
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