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श्री संवेगरंगशाला
महावीर प्रभु को तुम नमस्कार करो, जोकि भगवन्त अनन्त राग वाले होने पर भी राग के त्यागी हैं, सुगत बुद्ध होते हए भी शिव-कल्याण के करने वाले और सोम अर्थात् चन्द्र होते हुए भी रात्रि के उदयरूपी आरम्भ के त्यागी हैं। यहाँ पर ग्रन्थकार ने विरोधाभास अलंकार से स्तुति की है। इसे दूर करने के लिए अनतंराय अर्थात् अन्तराय बिना, परिहरियराय अर्थात् राग के त्यागी, सुगत अर्थात् सम्यग् ज्ञान वाले होने से शिव अर्थात् उपद्रव हरने वाले और सौम अर्थात् सौम्यता गुण वाले होने से प्रभु चत्तदोसोदयारंभ अर्थात् रागादि दोषों के उदय और आरंभ के त्यागी हैं । ऐसा भी अर्थ हो सकता है ।
जे नित्वाणगया बिहुनेहदसावज्जिया वि विप्पंति ।
ते अपुप्पपईवा जयन्ति सिद्धा जय पसिद्धा ॥५॥ अर्थात् निर्वाण हुए और स्नेहदशा से रहित अपूर्व दीपक के सदृश, जगत् प्रसिद्ध श्री सिद्ध परमात्मा विजयी हैं यहाँ दीपक के पक्ष में निर्वाण हुए अर्थात् बुझे हुए और स्नेह-तेल तथा दशा-बत्ती ऐसा अर्थ करना, परन्तु सिद्ध परमात्मा ऐसे नहीं हैं वे तो तेल और बत्ती के बिना ही प्रकाश के पुंज रूप हैं इसलिए वे अपूर्व दीपक समान हैं।
___ हजारों अतिशयरूपी सुन्दर सुगन्धो से खुशबू फैलाते श्री जिनेश्वर के मुखरूपी सरोवर से प्रकट हुआ श्रुतरूपी कमल का मूल, नाल आदि के समान जो पाँच प्रकार के आचार हमेशा पालन करने वाले और उसी का उपदेश देने वाले ऐसे गुण समूह के धारक श्री गौतम आदि जो गणधर (आचार्य) हैं उनको मैं नमस्कार करता हूँ। ___सतत सूत्र के दान से आनंदित बने मुनिवर रूपी भ्रमरों से घिरे हुए और नित्य चरित्र गुण से श्रेष्ठ हाथी के समान श्री उपाध्याय भगवन्तों को मैं नमस्कार करता हूँ। इस श्लोक में श्री उपाध्याय भगवन्त को हाथी की तुलना की है, उनके पास हाथी समान ज्ञानरूपी महाकाया है चरण गुणरूप चाल-गति है, ज्ञान दानरूपी मद झरता है, वहाँ मुनि रूपी भौंरे का समूह मदरूपी ज्ञान दान लेने के लिए स्वाध्याय का श्रेष्ठ संगीत गाते हैं ।
जो करूणा रस से परिपूर्ण हृदय वाले, धर्म में उद्यमी जीव की सहायता करने वाले और दुर्जय कामदेव को जोतने वाले तथा तपोनिधान रूप तपस्वी मुनिवर्य है उसे मैं नमन करता हूँ।