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समयसार अनुशीलन
होते रहना चाहिए; क्योंकि इस प्रत्यगात्मा के स्वरूप की देशना ही आत्मार्थी जीवों को मुक्तिमार्ग में लगाने में निमित्त होती है ।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में देशनालब्धि का होना भी अनिवार्य है । उस देशनालब्धि का साधन सदा उपलब्ध रहे यही भावना व्यक्त हुई है इस आशीर्वादरूप जिनवाणी की वंदना में ।
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वैसे तो विद्यमान बीस तीर्थंकरों के माध्यम से अढाई द्वीप में निरन्तर ही इसप्रकार की देशना उपलब्ध रहती है, अतः अनेकान्तमयी मूर्ति नित्य प्रकाशित ही है; तथापि हम तुम जैसे भव्यजीवों को भी प्रत्यगात्मा का उपदेश निरन्तर प्राप्त रहे, वह प्रत्यगात्मा हमारे ज्ञान का ज्ञेय निरन्तर बना रहे यही मंगल आशीर्वाद दिया है आचार्यदेव ने हम सबको ।
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शुद्धात्मा की प्रतिपादक जिनवाणी-गंगा का प्रवाह इस लोक में अविरल प्रवाहित होता रहे इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने आत्मख्याति टीका लिखने का उपक्रम किया है, जिनवाणी-गंगा के अविरल प्रवाह में अपना योगदान दिया है । हम सभी का भी पावन कर्तव्य है कि आत्मकल्याण के प्रयास के साथ-साथ जिनवाणी-गंगा के प्रवाह में यथाशक्ति तन-मन-धन से योगदान करते रहें ।
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वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा की शुद्धात्मा की प्रतिपादक वीतरागवाणी हम सभी को निरन्तर प्राप्त रहे इस मंगल कामना के बाद अब आचार्य अमृतचन्द्रदेव इस आत्मख्याति टीका के प्रणयन का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए कहते हैं
( मालिनी ) परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावा
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दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते - भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ॥ ३ ॥