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ग्रन्थनायिका परमविदुषी संयम-तपोमूर्ति प्रवर्तिनी सज्जनश्री जी महाराज की
जीवन ज्योति
[ साहवी शशिप्रभाश्री जी
[दर्शनाचार्य : प्रस्तुत ग्रंथ की प्रधान संपादिका तथा बहुध त श्रमणी] प्रियदर्शनाश्री जी(साहित्यरत्न)
"बाबुसा ! मैं दीक्षा लूगी।" नववर्षीय पुत्री ने अपने पिता से बालसुलभ बोली में कहा।
पुत्री के शब्द सुनकर पिता चकित रह गये। मानस में गम्भीर विचारों की तरंगें उठने लगीं। किन्तु पुत्री को किसी प्रकार समझाना तो था ही। अतः विचारों के उद्वेलन को कुछ क्षण के लिए रोककर, सिर पर हाथ फिराते हुए बोले
___ "बेटी ! तुम अभी नादान हो । दीक्षा ग्रहण करने और दीक्षित जीवन व्यतीत करने में कितने कष्ट हैं, तुम क्या जानो ? तुम अभी तक सूख-सुविधाओं में पली हो। फूल-सी कोमल नाजुक उमर है तुम्हारी । केशलोच करना, सर्दी-गर्मी में नंगे पैरों चलना, जैसा मिले वैसा खाना; अनेकों कष्ट हैं, बेटी ! इसलिए दीक्षा का विचार कोई हँसी-खेल नहीं है। साधुजीवन खांड़े की धार है।"
पुत्री चुप हो गयी; लेकिन उसके चेहरे पर आते-जाते भावों से पिता ने अनुभव किया कि पुत्री ने दीक्षा का विचार पक्का कर लिया है। इतनी छोटी उम्र है किन्तु समझ और संकल्प बहुत गहरा है। उसके मन में दीक्षित होने के संस्कार जग चुके हैं।
प्रसिद्ध शिक्षा मनोवैज्ञानिक ड्यूई (John Dewey) ने कहा है-'बच्चा कोरी स्लेट नहीं है, जिस पर हम मनचाही इबारत लिख दें, वह निश्चित संस्कार लेकर आता है और अनुकुल पर्यावरण (परिस्थिति) मिलते ही वे संस्कार प्रबल हो उठते हैं; तथा उसी के अनुरूप बच्चे का चरित्र-निर्माण होता है, उसका भावी जीवन बनता है।'
इसी को अध्यात्मवादी जैन धर्म-दर्शन में पूर्व-जन्मों के संस्कार कहा गया है और इन शुभाशुभ संस्कारों के बीज पूर्व-जन्मोपार्जित शुभाशुभ कर्मों में निहित रहते हैं।
जिन्होंने पूर्वजन्मों में शुभ कर्मों का उपार्जन किया होता है, ऐसे बच्चे बाल्यावस्था में ही धर्मानुरागी बनकर संयमी जीवन धारण करने की
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