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१. जीवन-ज्योति
- यह शरीर माटी का दीपक है, प्राण इसकी ज्योति है, प्राणो की लौ जब ऊर्ध्वमुखी बनती है तो चेतना का आलोक जगमगा उठता है और दीपपरिसर से अज्ञान-अंधकार पलायन कर जाता है ।
संत-जगत के चिन्मय दीपक हैं । इस जगत परिपाव में अज्ञान-भय-संत्रास-पीड़ा का अंधकार भरा है, जब संत की चेतना-बाती ऊर्ध्वमुखी बनकर आलोक वर्षाती है तो जगत् जीवो के मन मे भरा अज्ञान अधकार, चेतना के गहरे आवरण में छिपा दुःख, संत्रास, कालुष्य का तमस् घुलने लगता है और धीरे-धीरे ज्ञान का मन्द-मनभावन आलोक जग-मगा उठता है । सुख-शान्ति-समता करुणा की प्रकाश रश्मिया जन-मन को आश्वस्त करने लगती हैं और मानवता का मन्दिर जगर-मगर कर उठता है । चेतना नव पुलक से उमग उठती है ।
संत की तपस्या, साधना, उसके अन्तःकरण से प्रवाहित करुणा, जीव मात्र को कृतार्थ करती है । सन्त की उपस्थिति से जगत कृतार्थ होता है और जगत को आलोक-दान कर सन्त-जीवन कतकत्यता अनुभव करने लगता है ।।
पज्य प्रवर्तिनी आर्या सज्जनश्री जी की जीवन-ज्योति, उनके प्रभास्वर व्यक्तित्वकृतित्व की दीप्ति विचारों की गरिमान्वित आभा जग-जीवो को आलोक प्रदान करने मे किस प्रकार सक्षम हुई यही अकित है। इन पृष्ठो.... की दीवट पर.. |
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