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इस ज्ञान में रहेगा तो प्रकृति सहज ही होती जाएगी। स्थूल प्रकृति रागद्वेष वाली है ही नहीं, वह तो पूरण-गलन (चार्ज-डिस्चार्ज) स्वभाव की है। यह तो अज्ञानता से अहंकार उत्पन्न हुआ है और वह अहंकार, 'पसंद' वाली चीज़ पर राग करता है और 'नापसंद' वाली चीज़ पर द्वेष करता है, जिससे प्रकृति असहज हो जाती है। ज्ञान मिलने से प्रकृति अलग हो गई लेकिन डिस्चार्ज रूप से रही है उसे व्यवस्थित के ताबे में है ऐसा कहा जाएगा।
जो मूल आत्मा है वह निश्चय आत्मा शुद्ध ही है। संयोगों के दबाव से अज्ञानता में जो विभाव उत्पन्न हुआ, 'मैं चंदू हूँ' वह व्यवहार आत्मा है। वह प्रतिष्ठा करता है कि 'यह मैं हूँ, मैं करता हूँ', उस भाव से अगले जन्म का प्रतिष्ठित आत्मा उत्पन्न होता है। इस व्यवहार आत्मा को ज्ञानविधि में भान हुआ कि 'मैं चंदू नहीं लेकिन मैं शुद्धात्मा हूँ, मैं कर्ता नहीं हूँ, व्यवस्थित कर्ता है'। तभी से जीवित अहंकार चला गया। अब सिर्फ, मृत अहंकार रहा। पूर्व में अज्ञानता से चार्ज किया था, वह आज 'चंदू' स्वरूप से डिस्चार्ज हो रहा है, वह निश्चेतन चेतन है, वही आज का प्रतिष्ठित आत्मा है, उसका निकाल (निपटारा) करना है। व्यवहार आत्मा में अंश जागृति उत्पन्न हुई, फिर भी अभी जो अजागृति है, जो मृत अहंकार के रूप में है, वह डिस्चार्ज प्रतिष्ठित आत्मा में तन्मयाकार हो जाता है। अब यदि पाँच आज्ञा की जागृति रखेंगे तो व्यवहार आत्मा तन्मयाकार नहीं होगा। डिस्चार्ज प्रतिष्ठित आत्मा अपने आप सहज रूप से मुक्त हो जाएगा, गलन (डिस्चार्ज होना) हो जाएगा। अब यदि प्रज्ञा में बैठकर प्रतिष्ठित आत्मा की दखलंदाजी को देखते रहेंगे, तो फिर देह भी मुक्त और आत्मा भी मुक्त।
शुद्धात्मा के अलावा अन्य कौन सा भाग रहा? चंदू और चंदू की प्रकृति रही। चंदू की प्रकृति जो भी करती हो उसमें हमें ऐसा नहीं कहना है कि 'तू जोश से कर या तू नहीं करना'। यदि हम ज्ञाता-दृष्टा रहेंगे तो प्रकृति खाली होगी। ऐसे ब्रेक मारेंगे या तो पकड़ रखेंगे कि 'हम से नहीं होगा' तो भी सब असहज हो जाएगा। वहाँ पर अगर आग्रह नहीं करेंगे तो सहज हो जाएगा। अतः प्रकृति की क्रिया डिस्चार्ज है जो सहज रूप
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